Society

अपनापन या अपमान सिर्फ मुल्क, मज़हब, मंदिर, मस्जिद या ज़ात से ही होते हैं क्या?

unity

उवैस सुलतान ख़ान 

मैं जो बात आपसे आगे साझा करने जा रहा हूँ, मैंने इसे लिखने के लिए कई बार कोशिश की लेकिन भरोसा नहीं कर पाता था, शर्म आती थी कि क्या लिखूं अपने समाज में बिखरते हुए सिरों के बारे में, जो रंग-बिरंगे थे, उनमें भिन्न-भिन्न सुगंधे थी तो आत्मीय गहराई भी थी. जो एक-दूजे से अलग होते हुए भी इस प्रकार एक-दूसरे से गुथे हुए थे कि इन्होंने एक ज़मीं के टुकड़े को हिंदोस्तान बनाया. बाबा चिश्ती, बाबा नानक, बाबा कबीर और न जाने उन जैसे कितनों ने इंसानियत और हकपरस्ती का नारा समाज में लगाया. क्या हमें लगता है कि ऐसे ज़िंदा लोग हमारे समाज में ज़िन्दगी बसर कर ऐसी ग़ज़ब कारसेवा कर चुके हैं. या ऐसा स्वरुप हिंदोस्तान का रहा होगा. मुझे तो अब शक है.

14 सितम्बर 2013 को जब पहली बार दंगों की आग से झुलस रहे मुज़फ्फरनगर-शामली जाना हुआ, तो हिंदोस्तान के नाम से मशहूर इस गुलिस्तान के खंडहर के बाक़ी कुछ निशाँ वहां बेहरहमी से कुचले जाते हुए देखे. रूह सिहर उठी जब एक बुज़ुर्ग के पास गया, गहरे सदमें में बैठे हुए उस आदमी ने कहा हमें क्या हुआ है, हमें तो हमारे बच्चों ने कत्ल किया, मारा और भगाया है. और वो ख़ामोश हो गए. ये वो इंसानी रिश्तों की मौत का मर्सिया था, जो अपने रिश्तों-नातों के क़त्ल पर खून के आंसू बहा रहा था. जिसमें भले ही वो मुसलमान पहचान होने की वजह से ज़ुल्म का शिकार हुआ हो. उस जैसे को क़त्ल करने वाले, मार कर भगाने वालो की शिकायत तो दूर, अभी तक वो इस सदमे से उबर नहीं पा रहा था कि उसके अपनो ने ऐसा क्यूँ किया. इन बेगाने अपनों को वो हिन्दू, जाट या कुछ और पुकार सकता था पर अपनी ज़िन्दगी की आखरी दहलीज़ पर क़दम रखे हुए भी वो इन्हें अपनी औलाद ही कह रहा था.

दूसरों के दिए ज़ख़्म तो कोई झेल भी पाए परन्तु अपनापन ख़त्म होने का दर्द मौत से ज्यादा तकलीफदेह होता है. अपनी बेबसी में मुझे इस बात का एहसास हो गया. आँखे नम थीं और मेरे कानों में ऐन वक़्त अपने अज़ीज़ जनाब नरेंद्र बस्तर साहब की बताई हुई एक बात गूंजने लगी. बागपत-बड़ौत से ताल्लुक रखने वाले नरेंद्र साहब ने एक रोज़ अपनी बुज़ुर्ग माँ से पूछा कि जब पाकिस्तान बनने का ऐलान हो गया, कांधला के कुछ लोगों को छोड़कर बागपत, बड़ौत , मुज़फ्फरनगर, शामली से कोई मुसलमान पाकिस्तान नहीं गया, मार-काट होने लगी, आप लोगों ने मुसलमानों को क़त्ल क्यूँ नहीं किया, क्यूँ नहीं खदेड़ा. आपकी कौम के पास ताक़त भी थी, तादाद भी. और उनसे मतभेद भी. सारे मुल्क को मतभेद हो गया था. तो वजह भी थी. मुल्क के अनेकों हिस्सों में तो ऐसा हो ही रहा था तो आपने ऐसा क्यूँ नहीं किया. नरेंद्र साहब की बुज़ुर्ग माँ ने उन्हें गैरियत से देखा और कहा,

‘अरे, अगर वक़्त आने पर कोई अलग तरह से सोचने लगता है, मतभेद हो जाते हैं, तो आपस में मरा-मारा थोड़े ही जाता है? पुरखों के ज़माने से चली आ रही आपसदारी का कुछ तूल होता है या नहीं? बिना अच्छे से जाने जो तुझे लोहे का तार और घेरा बना के देते थे, उसके पीछे कोई जज्बा था कि नहीं? उन्हें मारा जाता है? तुझे न जानते थे, लेकिन गाँव की बेटी और बहन को तो जानते थे. न जानते हुए भी तू उनके लिए अपना था. अपनापन या अपमान सिर्फ मुल्क, मज़हब, मंदिर, मस्जिद या ज़ात से ही होते हैं क्या?”

यह था हमारा हिंदोस्तान.

ज्यादा दूर नहीं लेकिन इतिहास के कुछ पन्ने पलट कर देखेंगे तो पायेंगे कि हिंदोस्तानी समाज शोक हो या हर्ष सब अवसरों पर हमेशा एक-जुट खड़ा रहा है. चाहे वो किसी का भी हो. बाल गंगाधर तिलक के निधन पर जो भारी शोक मनाया गया उसकी मिसाल आज़ादी से पहले नहीं मिलती. गांधीजी, मौलाना शौकत अली, डॉ. सैफुद्दीन किचलू ने अर्थी को कंधा दिया. इलाहाबाद में जब उनकी अस्थियाँ लाई गई तो हिन्दू-मुसलमान सब नंगे पैर और नंगे सर गंगा के तट पर मौजूद थे. तिलक के वारिस मौलाना हसरत मोहानी ने गंगा तट पर एक कविता पढ़ी,

मातम हो न क्यूँ भारत में बरपा दुनिया से सिधारे आज तिलक

बलवंत तिलक, महाराज तिलक.. आज़ादी के सरताज तिलक.

आज जिस तरह के हालात हैं, ऐसे ही हालात समाज को बांटने के लिए साम्राज्यवादी ताक़तों ने 1947 से पहले के हिंदोस्तान में असरदार तरीके से अंजाम दिए थे. हमारे बुज़ुगों ने अपनी रिवायतों को ज़िदा रखा. 1924 में दंगों को रोकने के लिए और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए 18 दिसम्बर को गांधी जी ने 21 दिन के उपवास की घोषणा की. इसके फलस्वरूप पंडित मोती लाल नेहरु की अध्यक्षता में मिलाप सम्मेलन आयोजित किया गया. गो-वध की समस्या रखी गई, मुसलमान खामोश रहे. सरदार पटेल ने कहा

‘मैं भी हिन्दू हूँ. गाय को पवित्र मानता हूँ, लेकिन मुसलमानों का यह विश्वास नहीं है तो क्या कारण है कि गाय के संबंध में हम अपना विश्वास या आस्था मुसलमान भाइयों पर थोपें. अलबत्ता यदि वे खुद स्वेच्छा से इसे छोड़ दें तो बेहतर है.’

दूसरी तरफ मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने कहा कि मुसलमान गाय ज़िबाह करना बिलकुल बंद करें. सभा में मौजूद कुछ हिन्दू और मुसलमान हज़रात को दोनों तरह के प्रस्तावों पर सख्त ऐतराज़ जताया. इस बीच पंडित मदन मोहन मालवीय ने बीच का रास्ता सुझाया और सभा में ऐसी प्रांजल उर्दू में भाषण दिया कि सब हैरान रह गए. उन्होंने कहा जहाँ गो-हत्या होती है, हिन्दू कोई रुकावट न डालें और न कोई क़ानूनी ज़बरदस्ती की जाए. लेकिन जहाँ नहीं होती है, वहां मुसलमान नए सिरे से गो-हत्या न करें.


जो विचारधारायें दंगो से देश के साम्प्रदायिक सौहार्द, बहुलतावादी प्रतीकों को नेस्तो-नाबूद करने पर तुली हुईं हैं, उनसे कोई समझदारी की उम्मीद रखना एक बेवकूफी ही होगी. लेकिन जहाँ समाज में मुज़फ्फरनगर हो या मुज़फ्फरपुर, कहीं न कहीं कुछ हाशिये के लोग मानवीय मूल्यों को अपने मन में संजोये हुए प्रतीत होते हैं और इंसानी ज़िन्दगियों को अपनी जान जोखिम में डाल कर बचाते हैं.

ये थे हमारे बुज़ुर्ग जो मतभेद होने के बावजूद एक दूसरे के लिए पेशकश करते थे, एक दूसरे को समझते थे. अपनी आस्थाओं और विश्वासों पर मज़बूत होने के बावजूद दूसरों पर नहीं थोपते थे. आज तो ऐसा सोचना भी बेवकूफी कहलाएगा. यह वही समाज है, जहाँ अब न्यायालय ने भी संविधान को ताक पर रखते हुए, विश्वास और आस्था की कसौटी पर फरमान जारी करना शुरू कर दिया है.

1948 का यही महीना कई बड़े बदलाव लेकर आया. महात्मा गाँधी दंगे की आग में झुलस रहे देश में शांति स्थापित करने में लगे हुए थे और दिल्ली वापस आये, जहाँ से उन्हें पाकिस्तान जाना था, और उन्होंने साफ़ कर दिया था कि वह हिंदोस्तान और पकिस्तान किसी का पासपोर्ट नहीं बनायेंगे. दिल्ली में हालत नाज़ुक थे, आज फूल वालों की सैर के नाम से मशहूर सांप्रदायिक सौहार्द के केंद्र ख्वाजा बख्तियार काकी के मज़ार पर सांप्रदायिक हिंसक शक्तियों ने कब्ज़ा कर लिया था. दिल्ली में क़त्ले आम जारी था, शरणार्थी बड़ी तादाद में आ रहे थे. 13 जनवरी 1948 को महात्मा गाँधी ने अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर आमरण अनशन का ऐलान किया, और कहा कि जब तक हिंदोस्तान और पाकिस्तान में दंगे रुक नहीं जाते, तब तक उनका अनशन जारी रहेगा. महात्मा की नैतिक ऊर्जा ने हिंदोस्तान और पाकिस्तान में दंगे रोक दिए.

18 जनवरी 1948 को महात्मा ने अपनी ज़िन्दगी का आखरी अनशन खत्म किया, जब भारत सरकार के प्रतिनिधि, पाकिस्तान के हाई कमिश्नर, हिन्दू, मुस्लिम, सिख संगठनों के प्रतिनिधियों ने ऐतिहासिक ‘दिल्ली सांप्रदायिक सौहार्द घोषणापत्र’ पर दस्तखत किये. इस आमरण अनशन के बारे में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में विशेष वक्तव्य देते हुए कहा कि महात्मा जी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए हिंदोस्तान और पाकिस्तान में खून खराबा रोक दिया. बारह दिन बाद ही हिन्दू महासभा और आरएसएस से सम्बन्ध रखने वाला एक हिंदुत्वादी नाथूराम गोडसे ने हमारे इस बुज़ुर्ग को शहीद कर दिया. आज सभी के लिए शर्मिंदगी की बात है कि राष्ट्रपिता के खूनी को आज महिमा मंडित किया जा रहा है. और उससे ज्यादा अफ़सोस और धिक्कार की बात है उस अपराधी चुप्पी पर जो हममें से एक बड़ी तादाद के मुंह पर लगी हुई है. और जो वैचारिक संगठन गांधी जी की हत्या में शामिल था, उसे लगभग 7 दशकों बाद आरोपमुक्त कर इस बार इन्साफ की हत्या की भरसक कोशिश है।

जो विचारधारायें दंगो से देश के साम्प्रदायिक सौहार्द, बहुलतावादी प्रतीकों को नेस्तो-नाबूद करने पर तुली हुईं हैं, उनसे कोई समझदारी की उम्मीद रखना एक बेवकूफी ही होगी. लेकिन जहाँ समाज में मुज़फ्फरनगर हो या मुज़फ्फरपुर, कहीं न कहीं कुछ हाशिये के लोग मानवीय मूल्यों को अपने मन में संजोये हुए प्रतीत होते हैं और इंसानी ज़िन्दगियों को अपनी जान जोखिम में डाल कर बचाते हैं. वहीं राजनीतिक दल जो समाज और बहुलतावाद से अपना रिश्ता जोड़ते हैं, वे समाज में लगी आग को बुझाने में कोई उत्सुकता नहीं दिखा रहे हैं, हालाँकि अवसर देखकर कुछ-कुछ कहेंगे ज़रूर परन्तु दंगे और नफरत रोकने के लिए उनका शीर्ष नेतृत्व या ज़मीनी कार्यकर्ता कहीं प्रभावी प्रयास करता नज़र नहीं आता.

शहीद महात्मा गाँधी, शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी, हसरत मोहनी, खान अब्दुल गफ्फार खान, पंडित सुन्दरलाल जैसे लोग अब खत्म से हो गए हैं. सार्वजानिक राजनीति में बहुलतावाद के लिए कोई महत्व नहीं होने के कारण बहुत सी गंभीर चुनौतियां हमारे युवा गणतांत्रिक संसदीय लोकतंत्र के सामने आ खड़ी हुई हैं. संवैधानिक ढाँचे के खिलाफ जड़े और मजबूत होती दिख रहीं हैं. यही वजह है कि हाल में हुई एक रिसर्च यह कहती है कि बड़ी तादाद में हमारा युवा वर्ग सैन्य-तानाशाह शासन को विकल्प के तौर पर देखता है, और अंतर-धार्मिक संबंधों के भी खिलाफ है.

ऐसे नाज़ुक दौर में हिंदोस्तानी बहुलतावाद के प्रतीक शहीद एहसान जाफरी की कविता ‘कौमी एकता’ की पंक्तियाँ याद आती हैं, जो हमें वास्तविकता से परिचित कराते हुए उम्मीदों से भरे रास्ते की ओर भी इशारा करती हैं:

‘अपनी डगर पर उसने कांटे बिछा दिए हैं

ख्वाबों के सारे खेमें उसने जला दिए हैं

उल्फत के सारे क़िस्से उसने मिटा दिए हैं

मीनार दोस्ती के उसने गिरा दिए हैं

मेरे वतन के लोगों बिपदा बड़ी पड़ी है

मिलजुल कर साथ रहना ऐलाने ज़िन्दगी है

खुशियों को बाँट देना फरमाने ज़िन्दगी है

गैरों का दर्द सहना उन्वाने ज़िन्दगी है

सबके लिए हो जीना अरमाने ज़िन्दगी है

मेरे वतन के लोगों बिपदा बड़ी पड़ी है’

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Ovais Sultan Khan

Ovais Sultan Khan is a social worker based in New Delhi. Ovais has a Bachelors and Masters degree in Social Work from University of Delhi. He also studied International Human Rights, Humanitarian and Refugee Laws from Indian Academy of International Law and Diplomacy. After completing post-graduation degree, Ovais joined ‘South Asian Dialogues on Ecological Democracy (SADED)’ as Programme Secretary, at the Centre for the Study of Developing Societies (CSDS). Ovais has now resigned from SADED-CSDS and decided to devote his time to activism.

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