खालिद बेवक़्त बेवकूफ़ी कर बैठा था। बेवक़्त इसलिए कि अभी तो ढंग से मूंछ के रोएँ तक ना आए थे उसके चेहरे पर और बेवकूफी यह कि उसे मुहब्बत हो गई थी। लड़की उसके क्लास की थी, ज़ीनत नाम था। दोनों मुहब्बत की गहराईयों से अनजान थे। कमबख्त, सागर को बारिश की बौछार समझ बैठे।
ज़ीनत को खालिद पसंद था- एक अच्छे दोस्त की तरह। एक ऐसा दोस्त जिसको वो ऐसी हर बात बता सकती थी जो वो अपनी सहेलियों को ना बताती। खालिद इस दोस्ती की चमक को मोहब्बत की चिंगारी समझता था। यह चिंगारी उसके दिल में आग लगा चुकी थी। हर बीतते पल के साथ यह आग उसके दिल में एक भयानक रूप ले रही थी। ठीक वैसे ही जैसे जंगल की आग धीरे-धीरे पूरे जंगल को निगल जाती है। एक पेड़ से दूसरे और फिर दूसरे से तीसरे। इसी तरह पूरा जंगल खाक हो जाता है।
आखिरकार वो दिन आता है जब खालिद उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार करता। कितनी ही रातें खालिद ने इस दिन के इंतज़ार में जागते हुए काटी हैं। कितनी ही बार वो अल्फ़ाज़ उसने अपने मन में दोहराए थे जो आज वो कहने वाला था। वहीं एक तरफ़ ज़ीनत को भी मोहब्बत हुई थी। मगर अफ़सोस, खालिद से नहीं। यह मुहब्बत है- यह कहाँ ज़िम्मेदारियो को समझती है, बंदिशों को जानती है और मजबूरियों को मानती है। मुहब्बत की दास्तां लिखने वाले को कहाँ फ़र्क पड़ता था कि इस बेख़याली में किसी खालिद का दिल तबाह हो जाएगा। दिलों को जोड़ने का नाम मोहब्बत है तो दिलों को तोड़ने का नाम भी मोहब्बत ही है।
खालिद आज अपने दिल की बात को उम्मीदों की लहरों पर चढ़ा कर ज़ीनत के हवाले करता है। पर हर लहर कहाँ कश्ती का सहारा बनती हैं। कुछ के हिस्से में बस किनारे की सख्त चट्टानें ही होती हैं। खालिद इन्ही लहरों के भरोसे था और ज़ीनत वह चट्टान अपने साथ लाई थी। खालिद के इज़हार का जवाब किसी चट्टान से कम न थे।
नफ़रतो में डूबा खालिद पूरा दिन यूँ ही सड़क किनारे ऐसे ही काट देता है। देर रात जब भूख उसके खाली पेट में भूकम्प मचाती है तो उसे घर की याद आती है। घर पहुँचते ही माँ-बाप के गुस्से का निशाना बन जाता है। खालिद को पहले भी कई बार डाँट पड़ चुकी थी उसके माँ-बाप से उसकी गलतियों के लिए जिसे वह कुछ घंटों में भूल जाता था। मगर आज अपने माँ-बाप की डाँट उसे बर्दाश्त नहीं हों रही थी। उनका हर एक लफ्ज़ खालिद को ज़हर लग रहा था। एक ही पल में उसे अपने ही घर में घुटन महसूस होने लगी। देखिए, मोहब्बत ने आज एक बेटे को उसके माँ-बाप से थोड़ा दूर कर दिया।
खालिद अपने माँ-बाप की डाँट सुनकर गुस्से में अपने कमरे में चला जाता है और अन्दर से दरवाज़ा बंद कर देता है। कुछ ही देर में उसकी माँ ट्रे में खाना लेकर आती है। खालिद दरवाज़ा नहीं खोलता। उसे ऐसा लगता है जैसे उसके माँ-बाप की वजह से ही ज़ीनत किसी और से मुहब्बत कर बैठी। उधर माँ हाथों में ट्रे लिए दरवाज़ा खुलने के इंतज़ार में है और इधर खालिद साहब अपने कानो में इयरफोन लगाए बेवफ़ाई के नग़मों में डूबे हैं।
अगले दिन खालिद रोज़मर्रा के वक़्त से पहले ही सोकर उठ जाता है। घड़ी की तरफ देखता है। घड़ी में अभी सवा तीन बज रहे हैं। वो अपने बिस्तर से उठ फुर्ती के साथ अपने कपड़े बदलता है। बैग में अपना ज़रूरी सामान भरता है। बैग कंधो पर टाँग, गुल्लक के पैसे अपनी जेब में रख खालिद कमरे का दरवाज़ा खोलता है। दरवाज़े के बाहर मेज़ पर उसके खाने की ट्रे अब भी रखी हुई है।
घर छोड़ कर निकले खालिद को आज पूरे दो दिन हो गए। वो अपने दोस्त के शहर में मौज के साथ समय बिता रहा है। बाहर का खाना, नई-नई जगह घूमने में मग्न खालिद को ना तो ज़ीनत की याद सता रही थी ना अपने माँ-बाप की।
तीसरे दिन, जब उसके पैसे ख़त्म होने को आते हैं तो खालिद को घर की याद आती है। एक झटके में उसकी आँखो के सामने अपने माँ-बाप की तस्वीर आ जाती है। खालिद को दुख तो होता है मगर अफ़सोस नहीं। पछतावे का एक जर्रा भर निशान भी नहीं था उसके चेहरे पर। उसके घर पहुँचते ही उसके माँ-बाप की आँखो में खुशी की चमक आ जाती है। माँ तो उसे गले से लगा उसके सांवले गालों को चूमने लगती है। कोई खालिद से कुछ नहीं कहता। ऐसा लगता जैसे माँ-बाप ने अपनी गलती मान ली हो। माँ गरम-गरम रोटियाँ सेंक कर अपने खालिद की थाली में डालती हैं और खालिद साहब ऐसे जम कर खाते है जैसे कौनसा ओलम्पिक मैडल जीत कर लाएँ हो। खालिद के खाना खा लेने के बाद उसके पिता अपनी पत्नी की तरफ़ देख कर बोलते हैं – अब तुम भी कुछ खा लो, तीन दिनो से तुमने भी कुछ नहीं खाया है। खालिद के कानों में भी यह बात गूँजती है मगर जब माँ-बाप ने घुटने टेक ही दिए थे तो उसके अंदर से भावनाओं की कोई बौछार बाहर नहीं आई।
ज़िंदादिल मोहब्बत ने कैसे एक बेटे के एहसास को मार डाला।
दस साल बाद, आज खालिद की शादी हुए दो साल हो गए हैं। आज खालिद अपनी पत्नी के साथ अपने माँ-बाप से मिलने वृद्धआश्रम जाएगा।
Sharjeel Usmani
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