“मैं लिखना चाहता था, हमेशा से, विज्ञान के बारे में, कार्ल सागां की तरह. और आखिर में बस यह एक ख़त (आत्महत्या का) है जो मैं लिख पा रहा हूँ.”- रोहित वेमुला
हैदराबाद विश्वविद्यालय में पढ़ रहे दलित शोधार्थी और छात्र नेता रोहित वेमुला ने कभी मरना नहीं चाहा होगा. उम्मीदों और सपनों के साथ जीने वाला कोई भी इंसान कभी चाह भी नहीं सकता. फिर भी, 17 जनवरी 2016 को रोहित नहीं रहा. हॉस्टल से निकाले जाने के बाद 15 दिनों से वो अपने चार साथियों के साथ जिस विरोध-स्थल पर रह रहा था, वहां से किसी बहाने उठ कर गया और उसने अपनी जान ले ली. उसी छात्रावास के एक कमरे में खुद को फांसी लगा कर जिससे विश्वविद्यालय प्रशासन में उसे निकाल दिया था. पर क्या रोहित ने वाकई आत्महत्या की है?
रोहित की आखिरी चिट्ठी पढ़ें तो साफ़ समझ आता है कि नहीं, रोहित ने अपनी जान नहीं ली. रोहित की जान ली है जातिव्यवस्था के उस भयावह पिंजर ने जिस पर हमारी तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्था टिकी हुई है . रोहित को अपनी जान लेने के लिए मजबूर किया गया क्यूंकि उसने दलितों पर, अपने लोगों पर लगातार किये जा रहे अन्याय के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत की.
रोहित को अपनी जान लेने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि बस दलित मुद्दों की बात पर ही नहीं रुका. उसने इससे भी आगे जाकर एक अक्षम्य अपराध कर डाला था, समाज के हाशिये पर रह रहे सभी वर्गों की लड़ाई लड़ने का अपराध, अल्पसंख्यकों, मजदूरों, औरतों, आदिवासियों, सबकी लड़ाइयों को जोड़ने का, उनमें अपनी आवाज उठाने का अपराध. अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के एक सक्रिय छात्र नेता के तौर पर रोहित ने व्यवस्था को ज्यादा ही चुनौतियाँ दे डालीं थीं.
देश के इन बड़े शिक्षा संस्थानों में ऐसे मेधावी दलित छात्रों की आत्महत्याएं, दरअसल उनकी निर्मम हत्याएं, कोई नयी बात नहीं है. हाल के ही सालों में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाते हैं जिनमें देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में सवर्ण शिक्षकों और छात्रों ने दलित छात्रों को लगातार प्रताड़ित कर उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया. ‘डेथ ऑफ़ मेरिट’ नाम की डॉक्यूमेंट्री ने 2007 से 2011 तक के सिर्फ चार सालों में ऐसी 18 घटनाओं के आंकड़े दिए गए थे, जिसपर काफी लम्बी बहस भी चली थी.
उनमें से एक आत्महत्या गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, चंडीगढ़ के जसप्रीत सिंह की थी. जसप्रीत सिंह एक प्रतिभाशाली छात्र था, जो कभी किसी परीक्षा में असफल नहीं हुआ था, सिवाय अपनी मेडिकल की पढ़ाई के आखिरी साल में. उस साल जसप्रीत के विभागाध्यक्ष ने सिर्फ उसको फ़ेल ही नहीं किया बल्कि बार-बार ऐसा करने की धमकी दी. जसप्रीत एक हद के बाद इस यातना को बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने आत्महत्या कर ली. बावजूद इसके कि उसकी जेब में मिले आखिरी ख़त में उसने इस निर्णय का ज़िम्मेदार अपने विभागाध्यक्ष को बताया था, पुलिस ने विभागाध्यक्ष के खिलाफ एफ़.आई.आर. तक दर्ज करने से इनकार कर दिया. जसप्रीत की मौत और उसके बाद प्रशासन के इस रवैये ने उसकी बहन ,जो खुद उस वक्त कंप्यूटर एप्लीकेशन की छात्र थी, को तोड़ के रख दिया और उसने भी अपनी जान ले ली.
इन दोनों आत्महत्याओं से उपजे आक्रोश के कारण राष्ट्रीय दलित आदिवासी आयोग ने मामले का संज्ञान लेते हुए तीन वरिष्ठ प्रोफ़ेसरों की एक समिति बनायी ताकि जसप्रीत की उत्तर पुस्तिकाएं फिर से जाँची जा सकें. समिति ने वही पाया जो कह पाने के इन्तजार में जसप्रीत दुनिया से चला गया था. यह कि दरअसल वह उत्तीर्ण हुआ था और विभागाध्यक्ष ने उसे जबरन अनुत्तीर्ण किया था. राष्ट्रीय दलित आदिवासी आयोग के हस्तक्षेप के बाद ही पुलिस ने दलित/आदिवासी (अत्याचार निरोधक) क़ानून के तहत विभागाध्यक्ष के खिलाफ एफ़ आई आर दर्ज की. पर व्यवस्था के हाथों मारे गए ज्यादातर दलित छात्रों को इतना, न्याय की एक आभासी सम्भावना, एक झूठी ही सही उम्मीद तक, हासिल नहीं होता.
रोहित की आत्महत्या और जातिगत भेदभाव और दुर्भावना के कारण दलित छात्रों को यंत्रणा दे देकर आत्महत्या को मजबूर कर दिए जाने वाली ऐसी तमाम घटनाएँ एक जैसी होती हुई भी हकीकतन बहुत अलग हैं. इसलिए कि रोहित को जसप्रीत जैसे सैकड़ों दोस्तों की तरह शैक्षणिक संस्थानों की दीवारों के पीछे छुप कर नहीं ख़त्म किया गया. रोहित का मामला ख़राब ग्रेड मिलने का या किसी दुर्भावनापूर्ण शिक्षक द्वारा परीक्षा में फ़ेल किया जाने का भी नहीं था. उसका मामला निवारण या न्याय दोनों के लिए कोई व्यवस्था मौजूद न होने की वजह से साल दर साल अत्याचार सहते जाने, प्रताड़ित होने और अंततः आत्महत्या कर लेने का भी नहीं था. ऐसा मामला जिनकी खबर समाज तक आत्महत्या हो जाने के बाद ही पहुँचती है.
रोहित की आत्महत्या-हत्या इस सबसे अलग थी. वह समाज और लोगों की आँखों के सामने घटती रही, टेलीविज़न पे, सोशल मीडिया में, और फिर भी, हम सब, समाज उसको बचा नहीं पाए.
संस्थानों के अन्दर ऐसी आत्महत्या-हत्या के शिकार होने वाले छात्र ज़्यादातर अकेले होते हैं, पर रोहित अकेला नहीं था. रोहित के पास उसके दोस्त थे, सहकर्मी और साथी थे- ऐसे सतही जिनके साथ साझा संघर्षों का लंबा इतिहास थे. रोहित को हॉस्टल से निकाला बस 5 छात्रों के साथ गया था, पर जब वह निकला तो सिर्फ 5 छात्र नहीं, सैकड़ों छात्रों का एक हुजूम निकला था. उसके साथ उसके संघर्ष में शामिल होने, खुले आकाश में सोने, सुबह संघर्ष के गीत गाने, जुलूस निकालने. फिर मसला सिर्फ हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर का भी नहीं था. एएसए के साथी जब अपने कैंपस में निकलते थे तब उनकी साझीदारी में देश भर के तमाम छात्र अपने परिसरों में, अपने शहरों की सड़कों पर उतर आते थे.
ऐसे सशक्त प्रतिरोध आन्दोलन का हिस्सा होने के बावजूद, ऐसी साझीदारियों के बावजूद, रोहित को अपनी जान लेनी पड़ी, यही तथ्य इस आत्महत्या-हत्या को इससे पहले की घटनाओं से अलग करता है. इस आत्महत्या-हत्या को आने वाले खतरनाक कल की चेतावनी में बदल देता है.
अगर हम एक बार घटनाओं की उस कड़ी पर नज़र दौड़ाएं जो रोहित की आत्महत्या-हत्या का कारण बनीं तो शायद देख पायेंगें कि हमारे गणतंत्र के हाशिये पर जी रहे लोगों के लिए आने वाले दिन कैसे होने वाले हैं. इस मामले की शुरुआत अगस्त 2015 में एएसए द्वारा मोंटाज फिल्म सोसाईटी (दिल्ली यूनिवर्सिटी)पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) द्वारा किये गए हमले के ख़िलाफ़ यूनिवर्सिटी कैम्पस में विरोध प्रदर्शन के आयोजन से हुई थी. एबीवीपी के फिल्म सोसाइटी पर हमले का कारण था उनके द्वारा मुज़फ्फरनगर दंगों पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म “मुज़फ्फरनगर बाकी है” का प्रदर्शन. एबीवीपी का गुस्सा लाज़मी था, यह फिल्म दंगों में हिंदुत्ववादी फ़सादियों की भूमिका को सामने लाती है.
सो एबीवीपी की हैदराबाद ईकाई हमले के विरोध से निश्चित तौर नाखुश थी और उनके एक नेता सुशील कुमार ने अपनी नाराजगी फेसबुक पर एएसए के साथियों को “गुंडा” कहते हुए जताई. एएसए समेत तमाम छात्रों के विरोध के बाद सुशील कुमार ने इस टिप्पणी पर लिखित माफ़ी भी माँगी. फिर उसके बाद न जाने क्या हुआ कि अगली सुबह सुशील कुमार ने ये आरोप लगाया की एएसए के तकरीबन 30 सदस्यों ने उस के साथ मारपीट की है जिसकी वजह से उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा है.
यूनिवर्सिटी के प्रोक्टोरिअल बोर्ड ने इन आरोपों की जांच की और तमाम अन्य सबूतों के साथ मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर भी सुशील कुमार के आरोपों को बेबुनियाद पाया. बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार,
श्री सुशील कुमार के साथ मारपीट होने का कोई भी सबूत बोर्ड को नहीं मिला है, न ही श्री कृष्णा चैतन्या से और ना ही डॉ अनुपमा द्वारा दी गयी रिपोर्ट से. डॉ अनुपमा की रिपोर्ट के हिसाब से श्री सुशील कुमार की सर्जरी का कोई सम्बन्ध किसी भी किस्म की मारपीट से नहीं है.
जांच के इन नतीजों के बाद बोर्ड ने दोनों संगठनों को चेतावनी देकर मामले को ख़त्म करने का निर्णय लिया. पर इसके बाद परदे के पीछे फिर कुछ घटा जिससे बोर्ड ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में एएसए के सदस्यों को सुशील कुमार को शारीरिक क्षति पहुँचाने का ज़िम्मेदार बताते हुए उसके साथ मारपीट करने के आरोप में रोहित समेत पांच छात्रों को निलंबित करने का आदेश दिया. एएसए ने स्वाभाविक ही इस निलंबन का विरोध किया और तत्कालीन वाईस चांसलर प्रो आर पी शर्मा के साथ जांच प्रक्रिया, तथ्यों और निर्णय के बीच बड़ी असंगतियों पर बातचीत की. इस बातचीत के मद्देनज़र प्रो शर्मा ने भी माना कि एएसए के साथ न्याय नहीं हुआ है और निलंबन का आदेश खारिज करते हुए पूरे मसले की फिर से और निष्पक्ष के लिए एक नयी जांच समिति के गठन का आदेश भी दिया.
वीसी शर्मा के विश्विद्यालय छोड़ते ही मामले का रुख बदलना शुरू हो गया. नए कुलपति प्रो पी अप्पाराव ने किसी जांच समिति का गठन नहीं किया और एग्जीक्यूटिव काउंसिल द्वारा पाँचों छात्रों के निलंबन और छात्रावास से उनके निष्कासन का निर्णय ले लेने तक अँधेरे में रखा. ऐसा क्यों हुआ इसके सूत्र केंद्रीय मंत्री बंदारू दत्तात्रेय के मामले में कूदने और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को चिट्ठी लिखने में खुलते हैं.
दत्तात्रेय ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को लिखी अपनी चिट्ठी में उससे हैदराबाद विश्वविद्यालय में एएसए जैसे “जातिवादी, अतिवादी और राष्ट्रविरोधी” संगठनों से मुक्त करने का अनुरोध किया था. उनके इन आरोपों का मुख्य कारण था संगठन द्वारा याकूब मेमन की फांसी की सज़ा के विरोध में प्रदर्शन आयोजित करना. शायद उन्हें अंदाजा भी न हो कि यह कारण आनंद ग्रोवर, प्रशांत भूषण, इंदिरा जयसिंह, युग चौधरी, नित्या रामकृष्णन, वृंदा ग्रोवर जैसे देश के जानेमाने वकीलों को भी देशद्रोही बना देता है क्योंकि उन्होंने भी इस सजा का विरोध किया था. यह कारण शायद सर्वोच्च न्यायालय को भी देशद्रोही ठहरा दे क्योंकि उसने इन लोगों के विरोध का संज्ञान लेते हुए ऐतिहासिक तरीके से सुबह 5 बजे मामले की सुनवाई की थी.
सवाल उठता है कि एक केंद्रीय मंत्री को एक विश्वविद्यालय के मामले में दखल देने की ज़रुरत क्यूँ हुई. वह भी ऐसे “छोटे” से मामले में जैसे मामले देश भर के संस्थानों में होते ही रहते हैं? क्या मंत्री महोदय रोहित और एएसए द्वारा हाशिये पर रहने वाले सभी शोषित समुदायों के संघर्षों को एक साथ जोड़ने की कोशिशों से परेशान थे? शायद हाँ, क्यूंकि दलितों का अल्पसंख्यकों की लड़ाई में साथ देना उस राजनैतिक-वैचारिक फंतासी की जड़ों में मट्ठा डाल देगा जिसके बल पे वे अभी सत्ता में हैं.
यही नुक्ता है जो रोहित की आत्महत्या-हत्या को ऐसी तमाम आत्महत्यायों से बिलकुल अलग कर देता है और देश के किसी भी विवेकशील नागरिक को इस बात से डरना चाहिए. अतीत में हुई दलित छात्र आत्महत्याओं-हत्याओं के जिम्मेदारों को , कुटिल जातीय ताक़तों को साफ़ साफ पहचाना जा सकता था. उन्हें सजा दिलाई जा सकती थी क्यूंकि जातिवाद चाहे व्यवस्था में कितनी भी गहराई तक रचा-बसा हो पर इसको ऐसे डंके की चोट पे अमल में लाना इतना आसान भी नहीं था. तब दलित छात्रों को प्रताड़ित करने की घटनाएं ज़्यादातर किसी एक व्यक्ति की शुरू की हुई होती थीं भले ही व्यवस्था उनको बाद में बचाने में लग जाये. मगर इतनी बेशर्मी के साथ जातिवाद का अभ्यास इससे पहले नहीं देखा गया. पहले कभी नहीं देखा गया कि एक केंद्रीय मंत्री सामाजिक न्याय की मांग करती हुई आवाजों को खामोश करने के लिए उन आवाजों को देशद्रोही करार करना शुरू कर दे और दूसरा केंद्रीय मंत्री उसका साथ देना क्यूंकि वो आवाज़े अब तक तमाम जगहों में, खांचों में बिखरी दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, स्त्री आदि को संगठित करने की कोशिश कर रही हैं.
इसीलिए रोहित की आत्महत्या को किसी हताशा से उपजा हुआ निर्णय नहीं कहा जा सकता. ना ही उसकी लड़ाई परीक्षा में उत्तीर्ण होने जैसी कोई निजी लड़ाई थी, न ही कोई और कारण था कि वो इस तरह अचानक हार जान दे दे. उसकी आखिरी चिट्ठी ये बात बहुत साफ़ साफ़ कहती है, वह चिट्ठी जो हकीकतन कोई ‘सुसाइड नोट” बल्कि इस देश के जनतंत्र के खिलाफ आरोपपत्र है, हलफनामा है. उस जनतंत्र के खिलाफ जो अरसे से अपने कमजोर लोगों को ठगता रहा था और जिसने अब उन्हें न्याय दिलाने के लिए तैयार होने का स्वांग रचाना तक भी त्याग दिया है. रोहित के “सुसाइड नोट” से,
इंसान की कीमत कितनी कम लगाई जाती है एक छोटी सी पहचान दी जाती है फिर जिसका जितना काम निकल आये – कभी एक वोट, कभी एक आंकड़ा, कभी एक खोखली सी चीज़ कभी माना ही नहीं जाता कि इंसान आखिर एक जीवंत मन है एक अद्भुत सी चीज़ है जिसे तारों की धूल से गढ़ा गया है चाहे किताबों में देख लो, चाहे सड़कों पर, चाहे उसे लड़ते हुए देख लो, चाहे जीते-मरते हुए देख लो (अनुवाद – अखिल कात्याल)
इंसानों को इंसान नहीं रहने देकर उन्हें अलग-अलग खांचों में बैठा देना, रोहित ने अपनी सारी ज़िंदगी इसी के खिलाफ लड़ने में लगा दी. इसी के लिए उसने शायद अपनी जान भी दे दी, इंसानों को खांचों में कैद करने के खिलाफ आखिरी प्रतिरोध के बतौर, उन्हें ललकारते हुए कि शरीर ही न रहा तो क्या कैद करोगे?
रोहित का शरीर, एक दलित के शरीर के तौर पर, यूँ भी हमेशा से ही संघर्ष की ज़मीन बनता आया है, संघर्ष उनके बीच जो उसके शरीर पर उसके इंसान होने का सच झुठला, उसे सिर्फ दलित बना अपनी मिलकियत बनाना चाहते रहे हैं दूसरी तरफ वे जो ऐसी किसी इंसानी गैरबराबरी के खिलाफ खड़े रहे हैं. रोहित ने इस बार फिर अपने शरीर को एक और संघर्ष की जमीन में बदल दिया- उस संघर्ष के जो सदियों की गुलामी को चुनौती दे रही ताकतों और सड़ांध मारती जातिव्यवस्था के नए, सत्ताधारी अलंबरदारों में होना है.
अब ये हमारी ज़िम्मेदारी है के उसकी मौत बेकार ना जाए. हमारी ज़िम्मेदारी है कि कम से कम यह बलिदान एक ऐसी व्यवस्था और प्रक्रिया शुरू करने का बायस बने हो जो ये तय करे कि जातिगत, लैंगिक और धार्मिक भेदभाव और शोषण के खिलाफ हो रही लड़ाइयों को साथ और ताक़त मिले—फिर यह शोषण चाहे किसी विश्वविद्यालय में पद का फायदा उठा कोई अध्यापक कर रहा हो या किसी मंदिर में कोई पुजारी. हमारी जिम्मेदारी है कि ऐसी व्यवस्था बनाएं जिसमें शोषण के खिलाफ लड़ने वाले अकेले न पड़ें, उल्टा दोषियों के पास बच भागने का कोई रास्ता ना हो, चाहे फिर उनका अपराध कुछ भी हो- सामजिक कार्यकर्ताओं को निशाने पे लेना या छात्रों को प्रताड़ित करना.
यह एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन के लिए लिखा गया लेख है. एबीपी न्यूज़ पर भी प्रकाशित. चित्र प्रतिदर्श उद्देश्य हेतु अंग्रेज़ी अखबार द-हिन्दू से साभार