شہر کو شنگھائی بنایا جائے | عبد الحمید * शहर को शंघाई बनाया जाए-अब्दुल हमीद


گھر کی ٹوٹی دہلیز پہ 

دیا رکھے 
بوڑھی ماں اپنی اداس آنکھوں میں 
ایک خواب  سجائے بیٹھی ہے 
اس میں ماضی کے کربناک یادوں کے 
ساتھ مستقبل کے اندیشےبھی ہیں 
چھوٹی لاڈلی کے ہاتھ بھی پیلے کرنے ہیں 
باپ بغل کے گاؤں میں ور دیکھنے گیا ہے 
بہنیں دیپ جلائے پراتھنا میں مشغول ہیں 
کہ ہو سکتا ہے ایسا سسرال ملے 
جہاں برسات میں چھت تالاب نہ بنتا ہو 
اور جہاں چھوٹی چھوٹی خواہشیں دم نہ توڑتی ہوں 
بڑے بیٹے کا فون آئے ہفتوں گزر گئے 
وہ جاگتی سڑکوں دوڑ رہا ہے 
نئی نئی بلڈنگیں بن رہی ہیں 
لوگ برقی سیڑھیوں سے آ اور جا رہے ہیں 
شاپنگ مال اگ رہے ہیں 
فیکٹریوں کے دھویں اور خودکار مشینوں نے 
محنت کشوں کو بیروزگار کر دیا ہے 
اس میں وہ بھی شامل ہے 
لیکن کوشش کرکے 
بینکوں کا چکّر لگاتا ہے 
میٹرک کی سند کو گروی رکھ کر 
ایک دوکان کھولتا ہے 
اچانک زندگی دگر پہ آ گئی ہے 
ایسا لگتا ہے ماں باپ کے خواہشات کو 
پورا کرنے کا وقت آ گیا ہے 
چھوٹے بھائی کو اچھے کالج میں سیٹ مل جائے گی 
گھر کے سیلن زدہ کمروں کو رنگ روغن 
سے آشنا کریگا 
ماں کے زیور کو 
زمیندار سے چھڈائے گا 
باپ کو فون کا ڈبّہ دلائیگا 
تا کہ بار بار پڑوسی پریشان نہ ہوں 
لیکن اچانک حاکم شہر کا 
فرمان آتا ہے کہ 
شہر کو شنگھائی بنایا جائے 
ودیشی انجنیئر زمینوں، پلاٹوں کی 
پیمائش میں جٹ گئے 
چند دنوں میں
شہر میں شاپنگ مال، ہوٹلز، میٹرو پلاننگ 
کا سیلاب آجاتا ہے 
اس کی چھوٹی دوکان بھی 
شہر کے انتظامیہ کے 
ہتھے چڑھ جاتی ہے 
وہ ایک مرتبہ پھر
زندگی کے امتحان میں شامل ہو جاتا ہے 
خواب ریزہ ریزہ ہو جاتے ہیں 
کرچیوں کو سمیٹتے سمیٹتے اسکے 
ہاتھ لہولہان ہو جاتے ہیں 
دیکھو کب ماں کی امیدیں پوری ہوں 
اگر یہی زندگی ہے تو موت شاید 
اس سے آسان ہو .
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शहर को शंघाई बनाया जाए | अब्दुल हमीद
घर की टूटी दहलीज़ पे
दिया रक्खे
बूढ़ी माँ अपनी उदास आँखों में
एक ख्वाब सजाए बैठी है
इसमें माज़ी के कुर्बनाक यादों के
साथ मुस्तक़बिल के अंदेशे भी हैं
छोटी लाडली के हाथ भी पीले करने हैं
बाप बग़ल के गाँव में वर देखने गया है
बहनें दीप जलाए प्रार्थना में मशग़ूल हैं
कि हो सकता है ऐसा सुसराल मिले
जहाँ बरसात में छत तालाब न बनता हो
और जहाँ छोटी-छोटी ख़्वाहिशें दम न तोड़ती हों
बड़े बेटे का फ़ोन आए हफ़्तों गुज़र गए
वह जागती सड़कों पर दौड़ रहा है
नयी-नयी बिल्डिंगें बन रही हैं
लोग बरक़ी सीढ़ियों से आ और जा रहे हैं
शॉपिंग मॉल उग रहे हैं
फ़ेक्ट्रियों के धुएँ और ख़ुदकार मशीनों ने
महनतकशों को बेरोज़गार कर दिया है
इसमें वो भी शामिल है
लेकिन कोशिश करके
बैंकों का चक्कर लगाता है
मैट्रिक की सनद गिरवी रखकर
एक दुकान खोलता है
अचानक ज़िन्दगी डगर पे आ गयी है
ऐसा लगता है माँ-बाप की ख्वाहिशात को
पूरा करने का वक़्त आ गया है
छोटे भाई को अच्छे कॉलेज में सीट मिल जाएगी
घर के सीलनज़दा कमरों को रंग-ओ-रोग़न
से आशना करेगा
माँ के ज़ेवर को
ज़मींदार से छुड़ाएगा
बाप को फ़ोन का डब्बा दिलाएगा
ताकि बार बार पड़ोसी परेशान न हों
लेकिन अचानक हाकिम-ए-शहर का
फ़रमान आता है कि
शहर को शंघाई बनाया जाए
विदेशी इंजिनियर ज़मीनों, प्लाटों की
पैमाइश में जुट गए
चन्द दिनों में
शहर में शॉपिंग मॉल, होटल्स, मेट्रो प्लानिंग
का सैलाब आ जाता है
उस की छोटी दुकान भी
शहर के इन्तेज़ामिया के
हत्थे चढ़ जाती है
वह एक मर्तबा फिर
ज़िन्दगी के इम्तेहान में शामिल हो जाता है
ख्वाब रेज़ा-रेज़ा हो जाते हैं
किरचियों को समेटते-समेटते उसके
हाथ लहू-लुहान हो जाते हैं
देखो कब माँ की उमीदें पूरी हों
अगर यही ज़िन्दगी है तो मौत शायद
इस से आसान है !
Abdul Hameed

Abdul Hameed

Dr. Abdul Hameed is graduate in Unani Medicine from Ajmal Khan Tibbiya College, Aligarh Muslim University, Aligarh

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