एएमयू पर साम्प्रदायिक हमला भारत के लोकतंत्र पर सीधा आक्रमण है

प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय

अलीगढ़ में जो हुआ है, उसे शर्मनाक कहना नाकाफ़ी लगता है। कोई और शब्द ढूंढना होगा, जो अभी वज़ूद में नहीं।

पूर्वउपराष्ट्रपति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दुनिया के जाने माने विद्वान हामिद अंसारी के ख़िलाफ़ सशस्त्र गुंडों ने ऐसे नारे लगाए जो अपमानजनक, असंवैधानिक और देश की गरिमा गिराने वाले थे। विश्वस्त सूत्रों ने बताया है कि उनके हाथों में तमंचे और हिन्दू युवा वाहिनी के झंडे चमक रहे थे।

सूत्रों के अनुसार वे पूर्वउपराष्ट्रपति पर हमला करने की नीयत से एएमयू कैम्पस के मुख्य दरवाजे के पास इकट्ठे हुए।

उन्होंने गेट के संतरियों के साथ मारपीट की और उन्हें तमंचे दिखाए। पुलिस वहां मौजूद थी, लेकिन उसने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की। शुरुआती रिपोर्टों में कहा गया था कि पुलिस ने कुछ देर के लिए कुछ तत्वों को गिरफ़्तार किया था, लेकिन यह ख़बर ग़लत निकली।

अपने सम्मानित अतिथि के इस अपमान के ख़िलाफ़ एएमयू के विद्यार्थी शांतिपूर्ण धरने पर बैठ गए। इसके बाद शुरू हुआ निहत्थे छात्रों पर पुलिस का बर्बर हमला। आंसूगैस के गोलों और लाठियों की अंधी बरसात। पच्चीस से अधिक छात्र बुरी तरह घायल हैं। उनकी ख़ूनसनी तस्वीरें फेसबुक पर तैर रही हैं।

जेएनयू, हैदराबाद, बीएचयू के बाद अब एएमयू को निशाने पर लिया गया है। इतिहास में पहली बार एएमयू कैम्पस पर साम्प्रदायिक हमला हुआ है। पूर्व उपराष्ट्रपति पर हिंसक निशाना साधा गया है। यह भारत के लोकतंत्र पर सीधा आक्रमण है।

दुनिया भर में इस घटना की घनघोर भर्त्सना की टंकार सुनाई देनी चाहिए।


09 अगस्त 2014 की एक फेसबुक पोस्ट:

मुहम्मद अली जिन्ना उस सेंट्रल असेम्बली में मौजूद थे जिसमें भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने “बहरों को सुनाने के लिए” बम फेंका था.

बहरों के कानों पर बम बेकार साबित हुए .

जेल में भगत सिंह और उनके साथियों ने अपने साथ किये जा रहे अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ भूख हडताल कर दी.

जबरदस्ती खाना खिलाने की हर सरकारी कोशिश नाकाम हो गई. क्रांतिकारियों की सेहत इतनी गिर गयी कि वे अदालत में पेश किये जाने लायक न रहे .

नियमों के अनुसार उनकी पेशी के बगैर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था .

सरकार ने सेन्ट्रल एसेम्बली में एक ऐसा संशोधन प्रस्ताव पेश किया , जिससे उसे कैदियों की गैरहाजिरी में ही मुकदमा चलाने का अख्तियार मिल जाए .

जिन्ना ने अपने धारदार भाषण से इस प्रस्ताव की धज्जियां उड़ा दीं . उनका विस्तृत भाषण तर्कों , प्रमाणों और उदाहरणों के अलावा तीखे बारीक व्यंग्य से चुना हुआ था .

उन्होंने सदन को और सत्ता को भी मजबूर कर दिया कि वे देखें कि भगत सिंह कोई साधारण अपराधी नहीं , बल्कि कुचले जा रहे करोड़ो हिन्दुस्तानियों की बगावत की आवाज़ था .

एक ही भाषण से उन्होंने सरकार को आतताई और मूर्ख दोनों साबित किया . सरकारी प्रस्ताव नामंजूर हो गया .

मुकदमा चलाने के लिए सरकार ने अध्यादेश के जरिये एक ट्रिब्यूनल बनाया . इस ट्रिब्यूनल की उम्र केवल चार महीने थी . खत्म होने के महज छः दिन पहले इस ट्रिब्यूनल ने सुनवाई शुरू की .

जाहिर है , उसके पास न तो कुल साढ़े चार सौ गवाहों के बयान दर्ज करने का समय था , न भगत सिंह का पक्ष सुनने का .

इस तरह इस ट्रिब्यूनल ने फांसी की जो सजा सुनाई वह नैतिक और विधिक दोनों ही आधारों पर पूरी तरह खोखली थी .

पिछले साल इम्तियाज़ रशीद कुरैशी नाम के एक पाकिस्तानी नागरिक ने लाहौर हाई कोर्ट में मुकदमा दायर किया है कि भगतसिंह और साथियों को सुनाई गयी वह अवैध सजा निरस्त की जाये और उन्हें निर्दोष घोषित किया जाये .

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