‘तीन तलाक़’ के ख़ात्में का वक़्त | उवेस सुल्तान ख़ान

‘वैकल्पिक नोबल सम्मान’ देने वाली संस्था के डेलिगेशन में सदस्य के बतौर साल 2015 में मुझे सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म, मुंबई जाने का मौक़ा मिला. ये संस्था इस्लाम के मशहूर विद्वान डॉक्टर असग़र अली इंजीनियर ने क़ायम की थी। डेलिगेशन की एक महिला सदस्य जो स्वीडन से थीं, वह चाहती थी कि महिला अधिकारों पर लिखी गईं इंजीनियर साहब की कुछ किताबों को देखें. किताबों को मंगाया गया, और किताबों के आने का सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक पूरी मेज़ भर नहीं गई, और कुछ किताबें दूसरी मेज़ पर भी रखनी पड़ीं. इतनी सारी किताबों को देखकर स्वीडन से आईं महिला इतनी अभिभूत हुईं कि उन्होंने भावुक होते हुए इंजीनियर साहब की किताब ‘वीमॅन इन इस्लाम’ उठाकर डेलिगेशन के सदस्यों को दिखाते हुए, कुछ रुंधी हुई पर तेज़ आवाज़ में कहा कि हम ‘वीमेन इन क्रिश्चियनिटी’ नहीं कर पाए, इसकी हमें ज़रूरत है.

इंजीनियर साहब ऐसे करिश्मे इसलिए कर पाए क्योंकि उनमें जानने की प्रबल इच्छा होने के साथ ही समझने-बूझने, संवाद करने और समन्वय स्थापित करने की अद्भुत क्षमता थी. आज उनके कद की कोई शख़्सियत हिन्दुस्तान में दिखाई नहीं दे रही. उन्होंने बहुत से रिश्ते बनाए थे, जिनसे दूरियां कम हुईं। इंजीनियर साहब शिया बोहरा मुस्लिम थे लेकिन उनके जनाज़े की नमाज़ सुन्नी देवबंदी मत के मौलाना शुऐब कोटी ने पढ़ाई थी. मौलाना कोटी, मौलाना इनामुल्लाह और मोहतरमा उज़मा नाहिद उन लोगों में शामिल रहे, जिनकी सलाह और मदद से इंजीनियर साहब ने मुस्लिम उलेमा के साथ इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों पर काम किया.

इंजीनियर साहब की मिसाल यहां इसलिए क्योंकि मुसलमानों के तमाम समूहों ने ‘तीन तलाक़’ (तलाक़े बिद्दत) के मुद्दे पर आमराय बनाने की बजाय हमेशा की तरह भिड़ना शुरू कर दिया है लेकिन इनमें ज़्यादातर के तर्क दोयम हैं और समझ सतही। हमेशा की तरह आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है.


जिन बिन्दुओं को प्रस्ताव के तौर पर पारित किया गया, वे पुरुषवादी सत्ता को सीधे चुनौती दे रहे हैं, और इस पहल पर और आगे बढ़ने की ज़रूरत है. साथ ही सभी मुस्लिम पक्षों को जिनमें भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन, बेबाक़ कलेक्टिव और दूसरे संगठन शामिल हैं, सभी से समझदारी और परिपक्वता की अपेक्षा है क्योंकि फिलहाल देश की सत्ता उनके हाथों में है जो हर हथकंडे से समाज की बहुलता को खत्म कर एकरूपता स्थापित करने की कोशिश में है.

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर एक पक्ष है। इसकी कार्यकारिणी में फिलहाल एक छोटा मगर ताक़तवर राजनीतिक महत्वकांक्षी गुट है, जो ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ में सुधार की जो गुंजाइशें मौजूद हैं, उसका तीखा विरोध कर रहा है. इस गुट ने डॉ. अस्मा ज़हरा को तलाक़े बिदअत (तीन तलाक़) का विरोध करने के मुद्दे पर अपना चेहरा बनाया है लेकिन डॉ. अस्मा ज़ेहरा की इस्लाम, कुरान, हदीस और शरिया पर जो सतही समझ है, वो कई बार न्यूज़ चैनल्स पर दिए हुए उनके बयानों से उजागर हो चुकी है।

इसी मसले पर मुसलमानों के बीच आमराय बनाने के लिए 16 मई 2016 में दिल्ली में आल इंडिया मुस्लिम मजलिसे मुशावरत की ओर से बैठक बुलाई गई थी। इसमें सभी मुस्लिम सम्प्रदायों, उप-सम्प्रदायों, मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों, दानिश्वरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और क़ानूनी जानकारों को शामिल किया गया। डॉ. अस्मा ज़ेहरा भी मौजूद थीं। यहां उन्होंने अपने भाषण के दौरान भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन को आरएसएस द्वारा प्रायोजित संगठन करार दे दिया. लेकिन डॉ. अस्मा के इस ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान का उसी बैठक में तीखा विरोध हुआ और कहा गया कि हो सकता है भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन के विचार हमसे अलग दिख रहे हों, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि उनका आरएसएस से जुड़ाव है.

तलाक़े बिदअत पर यह बैठक बहुत ही अहम थी जिसमें सभी समूहों ने ‘एक ही बार में एकतरफा तीन तलाक़’ (Unilateral Triple Talaq in one sitting) का विरोध क़ुरान और हदीस की रौशनी में किया गया. वहां मौजूद हममें से कई लोग पीछे एक-दूसरे की काना-फूसी करते हुए कहने पर मजबूर थे कि जिस तरह से मुस्लिम उलेमा ने इस मसले पर अपना पक्ष रखा है, वो प्रगतिशील कहलाने वाले लोगों को पीछे छोड़ने वाला है.

तलाक़े बिदअत यानि ‘एक ही बार में एकतरफा तीन तलाक़’ का रिवाज सुन्नी हनफ़ी मत के लोग करते हैं, जबकि शिया जाफरिया, सुन्नी ग़ैर-मुक़ल्लिदीन (अहले हदीस) और दूसरे सुन्नी मतों के मानने वालों में तलाक़ के दूसरे तरीके हैं. हिंदुस्तानी मुसलमानों में बहुलता पाई जाती है, यहाँ मुसलमानों में भी भिन्न मतों को मानने वाले हैं, इसलिए जिस तरह से हिंदुस्तान में सभी मुसलमानों को एक खांचे में बांधने की कोशिश की जा रही है, वह हस्याद्पद होने के साथ ही ख़तरनाक भी है.

इस बैठक के संयोजक शीर्ष बरेलवी आलिम मौलाना सय्यद अतहर अली थे, और सदस्यों में इकरा फाउंडेशन की डायरेक्टर मोहतरमा उज़मा नाहिद, जमाते इस्लामी हिन्द के नायब अमीर जनाब नुसरत अली और मरकज़ी जमीयत अहले हदीस हिन्द के महासचिव मौलाना असग़र इमाम मेहदी सलफी थे. ये सभी आल इंडिया मुस्लिम मजलिसे मुशावरत के सदस्य होने के साथ ही आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के भी सदस्य हैं. इससे पता चलता है कि हिन्दुस्तान के विभिन्न मुस्लिम समूहों में तलाक़े बिद्दत को ख़त्म करने पर एक आमराय बन चुकी है सिवाय छिटपुट विरोध के।

इस बैठक में जमियत उलेमा हिन्द के महासचिव मौलाना महमूद असद मदनी, आल इंडिया मुस्लिम मजलिसे मुशावरत के अध्यक्ष नावेद हामिद, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के डॉ. सय्यद कासिम रसूल इलियास, शीर्ष बरेलवी आलिम मौलाना तौकीर रज़ा, प्रोफ़ेसर अख्तरुल वासे, मौलाना जुनैद बनारसी, जनाब मुजतबा फ़ारूक़ जैसे कद्दावर लोगों ने शिरकत की.

इस बैठक में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सय्यद राबे हसनी नदवी और उपाध्यक्ष मौलाना सालिम कासमी शिरकत नहीं कर सके तो उन्होंने अपने सन्देश भेजे। इस सबके बावजूद यह जो बैठक थी उसे नहीं होने देने की सुधार-विरोधी गुट द्वारा पूरी कोशिश की गई.

इस बैठक की ख़ास बात यह भी रही कि यहाँ अलग-अलग तरह के लोग थे. हमारे लिए यह पहली बार था, जब महिलाएं नक़ाब-हिजाब में भी अपनी बात रख रहीं थी और बहुत सी बिना-सर ढके भी, बिना परदे के बेबाक़ राय रख रहीं थीं, इस पर किसी को एक दूसरे से कोई ऐतराज़ भी नहीं था. उलेमा भी इनकी बात ध्यान से सुन रहे थे और बारीकियों पर गौर कर रहे थे, साथ ही दूसरा तबका भी मुस्लिम उलेमा की अपनी समझ पर पुनरावलोकन करने पर मजबूर था. हालांकि इस तरह के प्रयास पहली बार नहीं थे, अतीत में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष रहे मरहूम क़ाज़ी मुजाहिदुल-इस्लाम कासमी साहब ने इस तरह के कई सफल प्रयास किये थे जो उनकी मौत के बात थम से गए.

इस बैठक में जो तमाम बिंदु निकले उनके संयोजित कर दस-सूत्री प्रस्ताव बनाकर अनुमोदित भी किया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण ये कि सुप्रीम कोर्ट में जमियत उलेमा हिन्द और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा दाखिल इम्पलीडमेंट एप्लीकेशन में संशोधन की अपील और ‘एक ही बार में एकतरफा तीन तलाक़’, जिसे तलाक़े-बिदअत भी कहा जाता है उसे सर्वसम्मति से निर्णय लेते हुए खत्म किया जाए और कुरान में दिए हुए ‘तलाक़े अहसन’ के तरीके को स्वीकार किया जाए-शामिल है। इनके अलावा प्रस्ताव में सभी मतों के इस्लामी फिक़ह (न्यायशास्त्र) को साथ लाते हुए क़ानूनी बहुलतावाद पर ध्यान देने की अपील और उसका तयशुदा वक़्त में कोडीफीकेशन हो; ख़ुला (तलाक़ लेने का दूसरा तरीका जिसमें दोनों पक्षों की सहमति बनानी होती है) को और आसान बनाने की अपील भी शामिल है।

जिन बिन्दुओं को प्रस्ताव के तौर पर पारित किया गया, वे पुरुषवादी सत्ता को सीधे चुनौती दे रहे हैं, और इस पहल पर और आगे बढ़ने की ज़रूरत है. साथ ही सभी मुस्लिम पक्षों को जिनमें भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन, बेबाक़ कलेक्टिव और दूसरे संगठन शामिल हैं, सभी से समझदारी और परिपक्वता की अपेक्षा है क्योंकि फिलहाल देश की सत्ता उनके हाथों में है जो हर हथकंडे से समाज की बहुलता को खत्म कर एकरूपता स्थापित करने की कोशिश में है, और इस बात को दोहराना गलत नहीं होगा कि यूनिफार्म सिविल कोड बहुलतावाद ख़त्म करने का माध्यम है.

अंत में, यूनिफॉर्म सिविल कोड पर डॉ. असग़र अली इंजीनियर का नज़रिया, कि जब यूनिफार्म सिविल कोड पर उनका पक्ष पूछा गया तो उन्होंने हमेशा विरोध करते हुए कहा कि वह सुधार के पक्षधर हैं, और यूनिफार्म सिविल कोड के खिलाफ. महिलाओं को सशक्त करना ज़रूरी है ताकि वे अपने अधिकार जो विभिन्न पर्सनल लॉ में भी मौजूद हैं उन्हें हासिल कर सकें, और उनका कहना था कि यह तरीका स्वीकार्य भी है साथ ही धार्मिक बहुलतावाद को हासिल करने में मददगार भी.

(ये लेखक के अपने विचार हैं )

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Ovais Sultan Khan

Ovais Sultan Khan is a social worker based in New Delhi. Ovais has a Bachelors and Masters degree in Social Work from University of Delhi. He also studied International Human Rights, Humanitarian and Refugee Laws from Indian Academy of International Law and Diplomacy. After completing post-graduation degree, Ovais joined ‘South Asian Dialogues on Ecological Democracy (SADED)’ as Programme Secretary, at the Centre for the Study of Developing Societies (CSDS). Ovais has now resigned from SADED-CSDS and decided to devote his time to activism.