गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ यदि आपने देखी हो तो जो तस्वीर मैं आपको दिखाना चाहता हूँ, आप देख लेंगे. इसमें साहिर लुधियानवी के ‘जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला’ गीत गाने से ठीक पहले का सीन है.
सीन में महफ़िल जमी है, जाम पिए और पिलाये जा रहे हैं, दो बड़े शायर अपने शेर पढ़ते दिखाई देते हैं. फिल्म देखने वालों में अधिकतर के लिए यह दोनों आदमी हर तीसरे सपोर्टिंग एक्टर की तरह ही कोई सपोर्टिंग एक्टर होंगे. कुछ एक होंगे जो इन दोनों को इनके शेर से पहचान लेंगे. पहले शायर अपना शेर ‘हम पी भी गए, छलका भी गए’ पढ़ते हैं और दूसरे शायर ‘उनको प्यार आ ही गया’ पढ़ते हैं. ये दोनों शायर हैं मजाज़ लखनवी और साहिर लुधियानवी.
मजाज़ को आखिरी बार यहीं देखा था. यूट्यूब पर ‘प्यासा’ पिच्चर का गाना सुनेंगे तो इस गाने से पहले कुछ पचास सेकंड का यह सीन भी दिख जाएगा.
फिल्म में दिखाया गया है तो ज़ाहिर हैं बड़े शायर रहे होंगे मजाज़. अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय का तराना भी इनकी नज़्म नज्र-ए-अलीगढ़ से वजूद में आया है.
मगर मजाज़ लखनवी को गुरुदत्त की फिल्म के पचास सेकंड के सीन या फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के तराने तक समेट देना मजाज़ का उर्दू अदब में जो स्थान है, उसको तंग करने के बराबर होगा.
मजाज़ का एक शादीशुदा औरत के साथ सम्बन्ध, उनके प्रति मजाज़ का पागल हो जाना वो भी इस कदर की ‘इक हर्फ़ भी न निकला होठों से और आँख में आँसू आ भी गए’, मजाज़ के चरित्र को और जानने लायक बनाता है. उस औरत का अपने वैवाहिक जीवन में बने रहना, मजाज़ को पागलखाने तक पहुँचा देता है. यह वह समय है जब मजाज़ सर्जनशीलता के शिखर पर थें. इनकी मृत्यु का चित्र भी इसी प्रसंग में सोचिए: लखनऊ शहर, एक बार की छत, शराब की बोतल, दिसम्बर की ठण्ड और मजाज़ की लाश.
मजाज़ लखनवी (1911-55) निसंदेह ही बड़े शायर हैं: शब्दों के साथ असाधारण कौशल, अति-उत्तम छंद, एक साहित्यिक उपज जिसमें न सिर्फ़ प्रेम-लीला है बल्कि इंक़लाब का नारा भी है. ऐसे शायर का इस प्रकार यूँ अंधकार में खो जाना, हमारी चूक है. इसे साहित्य के साथ नाइंसाफी का नाम दीजिए, मजाज़ के साथ बेईमानी का, बात बराबर है.
जैसा की बताया कि मजाज़ की रचनाओं में प्रेम लीला के साथ साथ इंक़लाब की भी बात थी. प्रेम-लीला का चरम तो आपने जान ही लिया, अब इंक़लाब की हद भी जान लीजिए. जान लीजिये कि
कोह-ओ-सेहरा में ज़मीन से खून उबलेगा अभी
रंग के बदले गुलों से खून टपकेगा अभी’.
यह मजाज़ ही हैं जो किसी लड़की से इस कदर प्रेम भी करते हैं कि पागलखाने जाने की नौबत आन पड़ती है तो दूसरी तरफ कुछ इस तरह भी लिख देते हैं: ‘
तेरे माथे पर ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था
इन सब में मजाज़ का सबसे मशहूर काम रहा उनकी नज़्म ‘आवारा’. यह नज़्म 1953 में आई फिल्म ‘ठोकर’ का गीत बना जिसे शम्मी कपूर के ऊपर फ़िल्माया गया.
उस समय की मुंबई शहर की मरीन ड्राइव पर शम्मी कपूर रात की तन्हाई में अकेले चले जाते दिखाई पड़ते हैं, और गीत गाते हैं जिसे परदे के पीछे तलत महमूद ने गाया था:
‘शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
इस गीत की आगे की पंक्तियाँ खुद ही मजाज़ के जीवन की रूपरेखा खींचती दिखाई पड़ती हैं:
रास्ते में रुक के दम लूँ मेरी आदत नहीं,
लौट कर वापिस चला जाऊं मेरी फ़ितरत नहीं,
और कोई हमनवा मिल जाए ये किस्मत नहीं’
साथ ही, अगर क्विदंतियों की मानें तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में यह किस्सा भी खूब मशहूर है कि जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु अलीगढ़ आए थे, उन्होंने विश्विद्यालय के पास खुद का तराना न होने का दुःख जताया था. बस फिर क्या था, अगली सुबह हाज़िर था
‘ये मेरा चमन है मेरा चमन,
मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ’.
अब यह किस्सा कितना सच्चा है और कितना झूठा इसका हिसाब आप करें. 19 अक्टूबर मजाज़ का यौम-ए-विलादत है. खिराजे तहसीन पेश कीजिये.
फ़िलहाल, समन हबीब और अमित मिश्रा को सुनिए:
ये लेखक के अपने विचार हैं. तथ्यों की प्रमाणिकता लेखक के अधीन है.