क़ौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यकदाना की।
आह! बदक़िस्मत रहे आवाज़-ए-हक़ से बे-ख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर।
आशकार उसने किया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन ख़याली फ़लसफ़ा पर नाज़ था।
शमअे हक़ से जो मुनव्वर हो यह वो महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई लेकिन ज़मीं क़ाबिल न थी।
आह! शूदर के लिए हिन्दोस्ताँ ग़मखाना है
दर्द-ए-इन्सानी से इस बस्ती का दिल बैगाना है।
बरहमन सरशार है अब तक मए पिन्दार में
शमअे गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग़यार में।
बुतकदा फिर बाद मुद्दत के मगर रौशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रौशन हुआ।
फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को एक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से।
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अल्लामा इक़बाल ने इस नज़्म को गुरु नानक साहब की प्रशंसा में लिखा है और उनको तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद (सबका प्रभु एक है और सिर्फ़ वही पूज्य है।) का बड़ा अलम्बरदार बताया है। साथ ही, शुरू के शेरों में महात्मा गौतम बुद्ध जी की सेवाओं और भारत में मौजूद तत्कालीन सामाजिक असमानताओं पर लिखा है। यह नज़्म अल्लामा के काव्य संकलन “बांग-ए-दरा” से लिया गया है:
क़ौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यकदाना की।
महात्मा बुद्ध ने हिन्दुस्तानी समाज को ईश्वर से मिलने का मार्ग दिखाया था। कहा कि सभी सामाजिक असमानताओं को मिटाकर मानव हित में काम करने से ही ईश्वर प्रसन्न होता है और उसकी प्राप्ति होती है। जात-पात के झगड़ो को महात्मा बुद्ध ने यह कहकर रद्द किया कि सभी मनुष्य एक पिता की सन्तान हैं, इसलिए ब्राह्मण और शूद्र का फ़र्क़ करना ग़लत है। यह झगड़े इन्सान को उसके रब से नहीं मिलने देते अर्थात तौहीद में बाधा डालते हैं। इन्सान एक ईश्वर को न मानकर, अपने खुद के स्वार्थ से प्रेरित रहता है। अल्लामा कहते हैं कि महात्मा बुद्ध एक बहुमूल्य मोती के समान थे लेकिन महात्मा बुद्ध की एक न सुनी गयी। परिणामवश, भारतीय समाज आज भी ज़ातों में बटा हुआ है।
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परवा: परवाह , चिन्ता। गौहर-ए-यकदाना: बहुमूल्य मोती
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आह! बदक़िस्मत रहे आवाज़-ए-हक़ से बे-ख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर।
अफ़सोस है कि भारतवासी उस सत्यवाणी (सच की आवाज़) अर्थात महात्मा बुद्ध से बे-ख़बर रहे और उनकी शिक्षाओं का मूल्य न समझकर स्वयं की मान्यताओं में घिरे रहे। ठीक उसी तरह जैसे एक पेड़ अपने फल की मिठास से बेख़बर रहता है।
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बदक़िस्मत: दुर्भाग्यशाली आवाज़-ए-हक़: सत्यवाणी ग़ाफ़िल: अनभिज्ञ शीरीनी: मिठास शजर: पेड़, दरख़्त।
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आशकार उसने किया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन ख़याली फ़लसफ़ा पर नाज़ था।
महात्मा बुद्ध ने भारतवासियों के सामने ज़िन्दगी का राज़ खोल डाला कि सभी मनुष्य भाई-भाई हैं और एक ही माता-पिता की औलाद हैं। उन्हें आपस में ऊँचे-नीचे पैमानों पर बाँटना धिक्कार योग्य है और सृष्टि के रचयिता के नज़दीक बहुत बड़ा पाप है। महात्मा बुद्ध का “मानव समानता” का यह सिद्धान्त इतना विशाल था कि चीन, जापान जैसे देशों में यह बहुत ज़्यादा फैला लेकिन भारत में इतना असर नही हुआ। भारत में महात्मा बुद्ध के इस राज़ का ज़रूरत के हिसाब से फल नहीं मिला क्यूँकि बुद्ध की शिक्षा से अधिक ‘वर्चस्ववादी’ लोगों को स्वयं के उन ख़याली क़िलों में रहना पसन्द था जो उन्होंने स्वयं दिमाग़ों में बनाए थे, समाज को ज़ातों में बाँट रखा था।
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आशकार करना: राज़ खोलना
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शमअे हक़ से जो मुनव्वर हो यह वो महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई लेकिन ज़मीं क़ाबिल न थी।
हिन्दुस्तानी समाज उस महफ़िल की तरह नहीं था जहाँ सच की रोशनी अपना नूर बिखेरें और हर अँधेरे को दूर कर दें। वास्तविकता यह है कि महात्मा बुद्ध के रूप में ईश्वर ने रहमत की बारिश तो की लेकिन ज़मीन इतनी बन्जर थी कि किसी नतीजे की कोई फसल न पनपी।
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आह! शूदर के लिए हिन्दोस्ताँ ग़मखाना है
दर्द-ए-इन्सानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है।
हिन्दुस्तान का सामाजिक ताना-बाना असमानता वाला रहा है जहाँ शूद्र (सबसे निचली जाति) हमेशा तिरस्कृत रही है और हमेशा ग़म के अँधेरों में डूबी रही है। हिन्दुस्तानी समाज इन्सान के दर्द से बेगाना रहा है।
नोट: इक़बाल के निधन के बाद भारत को आज़ादी मिली और आज़ाद भारत में नए सँविधान का निर्माण किया गया जहाँ सबके अधिकारों को ध्यान में रखा गया। डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने निचले तबक़ो के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया। यदि आज अल्लामा जीवित होते तो इस नज़्म के हवाले से आज एक और नज़्म लिखते जिसमें एक बहतर भारत की तस्वीर होती।
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बरहमन सरशार है अब तक मए पिन्दार में
शमअे गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग़यार में।
ज़ात-पात की लड़ाई का मुख्य आधार “घमंड” है। ऊँची ज़ात के लोग स्वयं को सबसे ऊपर और सबसे बड़ा मानते हैं। ऊँची ज़ात वाले हर समय इसी घमण्ड के नशे में चूर रहते हैं। महात्मा बुद्ध की उनके अपने ही लोगों ने महत्ता न समझी जबकि जापान, चीन जैसे पराए मुल्कों में उनकी शिक्षाओं की ज्योति रश्मियाँ बिखेर रही है।
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सरशार: चूर मए पिन्दार: घमंड की शराब, महफ़िल-ए-अग़यार: पराई महफ़िल
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बुतकदा फिर बाद मुद्दत के मगर रौशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रौशन हुआ।
अल्लामा इक़बाल कहते हैं कि गुरु नानक साहब की मौजूदगी से आज फिर भारत में तौहीद का नूर फैला है। जिस तरह हज़रत इब्राहीम से उनके पिता आज़र का घर रोशन हुआ था।
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फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को एक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से।
गुरु नानक साहब के रूप में पंजाब की पवित्र भूमि से आज फिर एक ईश्वर की और बुलाती आवाज़ उठी है जिसने हिन्दुस्तान को सदियों की नींद से जगाया है, उन ख्वाबोँ से जगाया है जो सच नहीं थे और मनगढंत थे। गुरु नानक एक मर्द-ए-कामिल अर्थात सिद्धपुरुष हैं।