उवेस सुल्तान ख़ान
1984 में देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिख नरसंहार हुआ और उसके बाद हुए आम चुनावों में अखिल भारतीय कांग्रेस को लोकसभा की कुल 533 संसदीय सीटों में से 404 सीटों पर विजय हासिल हुई. कांग्रेस को 49.10 प्रतिशत वोट मिले. विपक्ष का सफाया हो गया था, और एन.टी. रामाराव की तेलगू देशम पार्टी 30 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी संसदीय पार्टी बनी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की चुनावी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी को 7.74 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 2 सीटें मिली.
तत्कालीन आरएसएस सरसंघचालक बालासाहब देवरस से कुछ पत्रकारों ने पूछा कि आपके संगठन की करारी हार हुई है, सिर्फ 2 सीटें मिली हैं. आप इस पर क्या कहेंगे? सरसंघचालक देवरस ने जवाब दिया कि संसदीय चुनावों में आरएसएस की ही जीत हुई है. इस पर अचरज के साथ पत्रकारों से पूछा कि कैसे? सरसंघचालक देवरस ने कहा कि 1984 के चुनावों में हमारी विचारधारा जीती है, हमारा संगठन हारा है. और संगठन से बड़ा विचार होता है.
देश विचारधारा और चुनाव के फर्क को भूलता गया और आरएसएस विचारधारा के साथ आज अपने संगठन को भी एक बड़े बहुमत के साथ सत्ता के शिखर पर बैठा पाई. और यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 2019 के चुनाव को जीतने के लिए प्रयासरत आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी का विरोधी विपक्ष वैचारिक रूप से शून्य है.
चुनाव और विचार दोनों को जीतने से ही देश का लोकतंत्र बच पायेगा, यही सच्चाई है. किसी एक को भी छोड़ना मुनासिब नहीं. इसके बावजूद संसदीय विपक्ष में सिर्फ दो शीर्ष आवाजें मुखर रूप से आरएसएस का नाम लेते हुए वैचारिक मुकाबले का आह्वाहन करती दिखती हैं. एक आवाज़ है लालू प्रसाद यादव की, जिन्हें खामोश करने के हर संभव प्रयास किये गए हैं, और किये जा रहे हैं. और दूसरी आवाज़ है राहुल गाँधी की, जो ये हिम्मत दिखा रहे हैं. बावजूद इसके कि उनकी पार्टी ने महात्मा गाँधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु की वैचारिक विरासत को तिलांजलि देकर सरदार पटेल की ‘गरम हवा’ की दक्षिणपंथी परंपरा को अपना रखा है.
1937 से 2018 तक आते-आते, देश ने कांग्रेस के ऐसे कारनामों को कई बार देखा है, जिसके चलते हिन्दुत्वादी आतंकी नाथूराम गोडसे द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गई. सिर्फ इसलिए कि महात्मा गाँधी हिंदोस्तान में मुसलमानों के जीवन की सुरक्षा, इज्ज़त और बराबरी को सुनिश्चित करने के लिए संघर्षत थे.
इस बार हिन्दुत्वादी आतंकियों के निशाने पर थे, देश के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी. अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी छात्र संघ ने 200 से अधिक विशिष्ट व्यक्तियों को आजीवन मानद सदस्यता दी है, जिसमें महात्मा गाँधी, पंडित जवाहरलाल नेहरु, खान अब्दुल गफ्फार खान, मोहम्मद अली जिन्ना, सरोजनी नायडू और दलाई लामा शामिल हैं. 2 मई को देश के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी छात्र संघ की आजीवन मानद सदस्यता दी जानी थी.
पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में ठहरे हुए थे. वहां हिन्दुत्वादी संगठन के 15 से 20 लोग, उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ उनके संरक्षण में बंदूकों के साथ आये और हंगामा किया. यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस के प्रांगण में इन हिन्दुत्वादी गुंडों ने गोली भी चलाई. यूनिवर्सिटी के निहत्थे छात्रों और यूनिवर्सिटी सुरक्षाकर्मियों ने इन उपद्रवियों को आगे बढ़ने नहीं दिया. 3 बजकर 10 मिनट पर 6 हमलावरों को पकड़कर पुलिस के हवाले किया गया, जिन्हें 3 बजकर 40 मिनट पर पुलिस ने छोड़ दिया और एफ.आई.आर. भी दर्ज करने से मना कर दिया. 3 बजकर 55 मिनट पर यूनिवर्सिटी छात्रों ने हमलावरों पर कार्यवाही करने और एफ.आई.आर. भी दर्ज करने के बाबत अलीगढ़ के सिविल लाइन्स थाने की तरफ कूच किया तो पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर बुरी तरह से लाठी-चार्ज किया जिसमे पचास से ज़्यादा छात्र बेहद घायल हो गए.
छात्रों पर इस भयंकर हमलें में हवाई फायरिंग तो की ही गई पुलिस और हिन्दुत्वादी संगठन के गुंडों द्वारा, उसके साथ ही बड़ी संख्या में छात्रों को रबड़ बुलेट और आँसू गैस के गोलों से भी घायल किया गया. कानून से बेपरवाह पुलिस ने लाठियों से छात्रों के सरों पर और गर्दनों पर सीधे हमले किये. जिसके कारण बहुत से गंभीर रूप से घायल छात्र अभी भी अस्पताल में भरती हैं. जो अस्पताल से बाहर आये हैं उनमें से कई व्हीलचेयर पर हैं, जिनमें छात्रसंघ अध्यक्ष और सचिव भी शामिल हैं.
पुलिस की इस बर्बरता से आहत होकर छात्रों ने यूनिवर्सिटी परिसर में ही बाबे सर सय्यद पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू किया. छात्र अभी तक शांतिपूर्ण अनिश्चितकालीन धरने पर हैं जिन्हें अपने अध्यापकों, शिक्षक संघ और दुनिया भर से तमाम पूर्व-छात्र संगठनों का समर्थन भी मिला है. इस संघर्ष की मांग है कि पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी पर हमला करने वालों पर केस दर्ज हो, और एक सुनिश्चित समय सीमा के अंदर एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जांच हो.
प्रशासन द्वारा अलीगढ़ में इंटरनेट सुविधायें बंद कर दी गई थीं, और यूनिवर्सिटी ने अपना वाई-फाई बंद भी कर दिया था, इसके बावजूद हज़ारों की संख्या में न्याय की मांग करते हुए धरने में छात्र – छात्रायें शामिल हुए.
कुछ गिने चुने लोगों को छोड़ कर, सभी राजनीतिक दल, सिविल सोसाइटी, बुद्धिजीवी, कलाकार ख़ामोश हैं क्योंकि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के साथ नाम जोड़ने का जोख़िम कोई नहीं उठाना चाहता. सिर्फ अखिलेश यादव ने ट्वीट की है इस मामले में, जबकि शरद यादव की ट्वीट के स्वर तो बिलकुल ही दूजे हैं इस मसले पर. राज्यसभा सदस्य प्रोफ़ेसर मनोज झा भी अपने सन्देश के ज़रिये छात्रों के पक्ष में आये हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र और शिक्षक इस हमले को व्यापक लोकतान्त्रिक और शिक्षण संस्थानों पर हमले से जोड़ते हुए, इसे एफ़.टी.आई.आई., जेएनयू, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, जादवपुर यूनिवर्सिटी पर हुए हमलों की कड़ी के बतौर देखते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने बीते सालों में देश में हुए प्रत्येक लोकतान्त्रिक आन्दोलन को समर्थन दिया. लेकिन अफ़सोस की बात है कि फासीवाद विरोधी ताकतें जो एक बड़े महागठबंधन पर ज़ोर देती हैं, वे अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को साझे संघर्ष का हिस्सा नहीं स्वीकार करना चाहतीं.
हद तो ये है कि देश के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के ऊपर हुए इस जानलेवा हमले पर किसी ने प्रतिक्रिया स्वरुप विरोध तक दर्ज नहीं कराया है. इसके बावजूद कि हिन्दुत्वादी ताक़तों द्वारा इस तरह का दूसरा गंभीर हमला पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी पर हुआ है. पहले हमले को 2010 में सरकार ने विफल कर दिया था. और इस बार अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के निहत्थे छात्रों ने उनका जीवन सुरक्षित किया है. कोई यह सवाल करने के लिए तैयार नहीं है पूर्व उपराष्ट्रपति की सुरक्षा के साथ इतनी भयंकर लापरवाही कैसे हो पाई.
इसमें अब कोई शक नहीं है कि मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर का बवाल सुनियोजित तौर पर पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी पर हमला करने की योजना के तहत किया गया, ताकि हमले पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जाये. और इस समय जिन्ना पर निशाना साधने के बहाने मुस्लिम विरोधी मानसिकता का व्यापक प्रदर्शन दक्षिणपंथी खेमें सहित, प्रगतिशील, सेक्युलर और गांधीवादी भी करते हुए नज़र आ रहे हैं.
इस हादसे के बाद कुछ लोगों को पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से शिकायत भी है कि उन्होंने इस हमले के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा. मुमकिन है उन्होंने इस बाबत कुछ न कहा हो कि कहीं उन्हें और ज़्यादा निशाना बनाते हुए अपमानित न किया जाये. उन्हें मालूम है कि उनके कुछ कहने पर या उनके साथ कुछ होने पर, कोई भी उनके साथ खड़ा नहीं होगा. जैसे कि उनके उपराष्ट्रपति के तौर पर विदाई समारोह में प्रधानमंत्री के पद की गरिमा और कर्तव्य को ताक पर रखते हुए नरेंद्र मोदी ने देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर 10 साल अपनी सेवायें देने वाले एक बुज़ुर्ग व्यक्ति का खुला अपमान किया. और पूरा संसदीय विपक्ष मौन रहा. किसी एक ने भी उसका विरोध दर्ज नहीं कराया.
संदेश बिल्कुल साफ़ है कि देश के वरिष्ठतम गरिमा वाले संवैधानिक पद पर रहा कोई हामिद अंसारी हो या फिर कोई मामूली मज़दूरी करने वाला या बेरोज़गार, हामिद या हामिदा – वे हिंदोस्तान में सुरक्षित नहीं है. कोई भी मुसलमान, किसी भी प्रकार की अपनी पृष्ठभूमि का हो, वे चाहे कितना ही मना करे लेकिन आज सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है, क्योंकि वे मुसलमान हैं. और वे मुसलमान हैं, इसलिए कुछ एक को छोड़कर कोई भी सेकुलरिज्म लोकतंत्र पर शत प्रतिशत आस्थावान भी मुसलमानों के ऊपर होने वाले किसी भी अन्याय, शोषण और अपमान के खिलाफ विरोध तो दूर की बात है, लेकिन बुनियादी संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी बात करने के लिय तैयार नहीं हैं.
इससे उलट इन तमाम प्रगतिशील, लिबरल, सेक्युलर धड़ों ने आरएसएस की ही तरह मुसलमानों को सिर्फ और सिर्फ एक धार्मिक समूह माना है, और मुसलमानों के अंदर की धर्म के अलावा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, छेत्रीय, वैचारिक व अन्य विविधताओं का इनकार किया है. ये सभी एक सामान रूप से मुसलमानों को इस नाते नागरिक मानने से गुरेज़ करते हुए प्रतीत होते हैं.
1947 में बंटवारे के बाद सरदार पटेल द्वारा चलाई गई गरम हवा, आज फिर नये रूप में चल रही है, ताकि आरएसएस के सपनो का हिन्दू राष्ट्र बन सके. 2014 से अब तक मुसलमानों के ऊपर नफरती हमलों के होने के बाद बहुत सारे छोटे बड़े प्रदर्शन ज़रूर हुए हैं. ये नफरती हमलें बहुत हुए हैं इसके बावजूद उंगलियों पर गिनने लायक अवसर नहीं मिलते जिसमें हमले के वक़्त किसी मुसलमान पर हमला होने को रोकने की कोशिश की गई हो या किसी प्रकार का मौके पर किसी ने विरोध दर्ज किया हो. दस भी ऐसी घटनायें नहीं हैं बीते चार साल में.
जाने-अनजाने में मुसलमानों को हाशिये पर धकेल कर, छुपाकर, उनके प्रतिनिधित्व का इनकार कर उनकी पीड़ाओं को अनदेखा अनसुना कर आज देश के गैर-आरएसएस राजनीतिक दल, सिविल सोसाइटी, बुद्धिजीवी, सेक्युलर, प्रगतिशील और लोकतंत्र समर्थक असंवैधानिक हिन्दू राष्ट्र की परियोजना को साकार करने में मदद कर रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि आरएसएस का विरोध करते हुए भी सेक्युलर और लोकतंत्र समर्थकों ने आरएसएस की हिन्दुत्वादी विचारधारा को आत्मसात कर लिया है और मुस्लिम विरोधी मानसिकता उनके अन्दर रच बस गई है.
इंकिलाबे आसमाँ से क्यों न हो उलझन मुझे
मैं पुकारूं दोस्त को आवाज़ दे दुश्मन मुझे
इस सब के बीच आज मुसलमान नौजवान सत्तर साल में पहली बार देश का नागरिक होने के नाते, राजनीति सीख रहा है. यह दलगत राजनीति नहीं है, बल्कि ये नागरिकता की राजनीति है जो अभी शुरूआती चरणों में है. इसे हमले झेलते हुए अभी लंबा सफ़र तय करना है. मौलाना हसरत मोहानी का दिया हुआ इंक़लाब जिंदाबाद का नारा आज मुसलमान लड़के-लड़कियां के होंठों पर है. वे अपनी बहुरूपी बहुलतावादी मुसलमान पहचान के साथ बिना किसी समझौते के सड़कों पर आकर अपने अलावा और शोषित समुदायों, दलित, आदिवासियों, महिलाओं के साथ काँधे से काँधा मिलाकर अपने हाथों की मुट्ठी बंदकर अपने बाज़ू हवा में लहराना सीख रहे हैं.
ये बुरके में, हिजाब में, या खुले बालों में, बिंदी लगाकर या बिना लगाये, साड़ी में, जींस में, शलवार कमीज़, या स्कर्ट में, दुपट्टे, बिना दुपट्टे, दाड़ी के साथ, बिन दाड़ी, टोपी, बिना टोपी, शलवार कुरते में या पैंट शर्ट में, हर तरह से अपनी मुसलमान पहचान के साथ सड़कों पर अपनी धमक महसूस करा रहे हैं. ये तमाम मुसलमान नौजवान अपना कल अपनी इज्ज़त और बराबरी हासिल कर खुद अपना नेतृत्व करेंगे. ये मुसलमान पहली बार अपने अधिकारों के बारे में सवाल करना सीख रहे हैं. ये सभी वह दिन दूर नहीं है कि जब किसी राजनीतिक पार्टी, सिविल सोसाइटी या मज़हबी तंज़ीम के मोहताज नहीं रहेंगे. अपने वजूद से वे अब भीड़ बढ़ाने नहीं बल्कि अपना खुद का प्रतिनिधित्व करेंगे साझे संघर्षों में.
होलोकॉस्ट में जिंदा बचीं प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी हन्ना अरेंट ने कहा था कि “जब आपके ऊपर हमला इस लिए हो रहा हो कि आप यहूदी हैं. आपको अपने आपको यहूदी होने के नाते बचाना चाहिए. जर्मन के रूप में नहीं, मनुष्यों के अधिकारों के उत्तराधिकार के रूप में नहीं, या किसी और रूप में भी नहीं..”
आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की परियोजना का तोड़ यही है. आज देश में सभी पहचानों को चाहे वे दलित हों, महिला, आदिवासी, बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, छात्र, ईसाई, कलाकार, लेखक, या अन्य, वे सभी अपनी पहचानों के साथ संघर्ष कर रही हैं. सभी के लिए स्वीकार्यता है, जगह है, सिवाय मुसलमानों के.
सिर्फ मुसलमानों के साथ आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को एक गाली के रूप में प्रयोग किया जाता है. प्रत्येक समाजी लोकतान्त्रिक कार्यक्रम में ख्याल रखा जाता है कि शोषित के तौर पर महिला और दलित प्रतिनिधित्व ज़रूर मंच पर रहे, पर यही सिद्धांत साम्प्रदायिकता के भीषण शिकार मुसलमान के नाम पर लागू नहीं किया जाता है, उन्हें अपने प्रतिनिधित्व करने लायक नहीं समझा जाता है.
ये ज़रूर है कि इतने नाज़ुक हालात में थोड़ी और परेशानी उठानी होगी और अपनी इज्ज़त और बराबरी के हक और दावे को उठाने के लिए अब मुसलमानों को भी हन्ना अरेंट के कहे अनुसार ‘अपने आपको सिर्फ मुसलमान होने के नाते बचाना होगा’. जब सभी शोषित समुदाय यही कर रही हैं तो मुसलमान यह क्यों न करें. ये ज़रूर है कि शुरुआत करने वालों को बेबुनियादी तौर पर सांप्रदायिक कहा जायेगा, उनका बहिष्कार होगा, उन्हें निशाना बनाया जायेगा. लेकिन किसी को तो कुर्बानी देनी ही होगी इस साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में. डॉ. भीम राव अम्बेडकर जातिवाद से लड़ें, लेकिन देश ने उन्हें ही लम्बे वक़्त तक जातिवादी होने का तमगा दिया और दुसरे बहुत घटिया अपमानों के साथ.
इस दौरान अपनी मुसलमान पहचान से नफरत करने वाले मुसलमान, इस्लामोफोबिक मुसलमान, बहुसंख्यकवाद के आगे आत्मसमर्पण कर चुके मुसलमानों को आदर्श के तौर पर लाने की कोशिश की जायेगी कुछ समय के लिए. उन्हें बढ़ावा दिया जाएगा, उन्हें नागरिकता की राजनीति कर रहे मुसलमानों के मुकाबले खड़ा किया जायेगा, सब कुछ होगा पर अब ये मंथन थमेगा नहीं. इसकी शुरुआत हो चुकी है. अभी अखिल भारतीय कांग्रेस ने एक ऐसे ही मुसलमान व्यक्ति को संगठन में अहम पद देकर सम्मानित किया है, क्योंकि उसने कठुआ मसले पर एक वीडियो में मुसलमानों को बेबुनियादी तौर पर बुरा भला कहा था. इस वीडियो से कांग्रेस ही नहीं, समाजवादी, सेक्युलर, लिबरल विचारधारा वाले ही खुश नहीं हुए थे बल्कि तारिक़ फ़तेह जैसा इस्लामोफोबिक व्यक्ति भी गदगद हो गया था. सभी को ऐसे मुसलमान पसंद हैं जो ‘सिर्फ मुसलमानों’ को बुरा भला कहने में महारत रखते हों.
ये सब कुछ होगा, इस सबके बावजूद अब ये खतरे उठाने ही होंगे ताकि आने वाली मुसलमानों की नस्लें सुकून से एक सही मायने में मुसलमान विरोधी हिंसा और मानसिकता मुक्त सेक्युलर हिन्दोस्तान में इज्ज़त और बराबरी के साथ रहें. और यही रास्ता है देश को और देश के लोकतंत्र को बचाने का. इसी से पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी भी बचेंगे, और साथ ही दुसरे आम हामिद और हामिदा भी.
(लेखक: उवेस सुल्तान खान एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. यह लेख सर्वप्रथम द सिटीज़न पर प्रकाशित हुआ था. )
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