महोदय,
आज चौदह सितम्बर है, अर्थात हिन्दी दिवस. आपको एवम् समस्त अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय परिवार को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
मैं आपके विशेष प्रयासों की सराहना करता हूँ जो कि आपने अपने कार्यकाल में अमुवि परिसर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु किये. आपके आगमन से पूर्व सांस्कृतिक शिक्षा केंद्र (सी.ई.सी.), अमुवि में अपने चार वर्ष के अनुभव के बाद मैं यह समझता हूँ कि आज परिसर में हिन्दी भाषा को लेकर आपके ये प्रयास अभूतपूर्व हैं. विश्विद्यालय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी भाषा को विशेष रूप से सम्मिलित करना, विश्विद्यालय के विभिन्न सूचना पटों पर संस्थानों, विभागों, छात्रावासों इत्यादि से सम्बंधित सूचनाएँ हिन्दी (देवनागरी) में अंकित कराकर आपने उन छात्र-छात्राओं के मानस में गौरव एवं प्रोत्साहन की अनुभूति कराई है जो हिन्दीभाषी क्षेत्रों से आते हैं, और जो विश्वविद्यालय परिसर में हिन्दी लिखते हुए या बोलते हुए अनायास ही लज्जा का अनुभव करते हैं. आपके प्रयासों ने उनके स्वाभिमान में नि:संदेह वृद्धि की है.
विश्विद्यालय परिसर में हिन्दी भाषा अथवा हिन्दी माध्यम में हमारी क्रियाशीलता अधिक नहीं है. इसके अनेक दुष्परिणाम हैं जिसमें सबसे अहम तो यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय का देश की हिन्दी पत्रकारिता में नगण्य योगदान है. देश की लगभग आधी जनसँख्या सुबह में चाय के प्याले के साथ हिन्दी समाचार पत्रों अथवा चैनलों को पढ़ती, सुनती और देखती है. ऐसे में उन्हें क्या परोसा जाए, क्यूँ परोसा जाए, जो परोसा जा रहा है वो देश के समग्र हित में है या नहीं- यह सब पत्रकारों अथवा मीडिया-कर्मियों का वह समूह निर्धारित करता है जो कदाचित इतना विविध नहीं होता कि वह देश के अल्प-संख्यकों और पिछड़ों के हितों को ध्यान में रख सके और यदि उनके व्यवसायिक और पूंजीवादी हित भी सामने आ जाएं तो अल्पसंख्यकों और पिछड़ो को और अधिक हानि उठानी पड़ती है. प्रोफेसर शाफ़े किदवई (जनसंचार विभाग) [‘द हिन्दू’ में], प्रोफेसर आफ़ताब आलम (राजनीतिशास्त्र विभाग) [‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में] , प्रोफेसर आसिम सिद्दीक़ी (अंग्रेज़ी विभाग) [‘द हिन्दू’ में] जैसे कई नाम अकादमिक क्षेत्र से ऐसे हैं जो देश के अंग्रेज़ी समाचार पत्रों में अमुवि का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. किन्तु हिन्दी पत्रकारिता में उनके जैसे लेखों का अभाव तो है ही, साथ ही दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिन्दुस्तान जैसे हिन्दी समाचार पत्रों में अलीगढ़ से निकलने वाले ऐसे युवा पत्रकारों का अभाव है जो समाज के अन्दर जाकर मामलों की वास्त्विकता के आधार पर निष्पक्ष समाचार लिखें या पढ़ें.
राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण बात कहने के बाद अब मैं आपको अमुवि और अमुवि परिसर से जुड़ी बातों से अवगत कराना चाहता हूँ.
सबसे पहले हर साल सर सय्यद दिवस के उपलक्ष्य होने वाली अखिल भारतीय निबन्ध लेखन प्रतियोगिता की बात करते हैं. यह प्रतियोगिता अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय द्वारा हर वर्ष आयोजित की जाती है. इसकी महत्ता इस बात में नहीं कि इसकी पुरस्कार राशि बहुत अधिक है अपितु इसका महत्त्व इस बात में है कि यह सर सय्यद और अलीगढ़ आन्दोलन के विमर्श को राष्ट्रीय स्तर पर युवाओं के बीच पुनर्जीवित करता है. प्रतियोगिता के आयोजन की सूचना अमुवि प्रशासन देश के बड़े-बड़े विश्विद्यालयों और कॉलेजों को प्रेषित करता है ताकि बढ़-चढ़ कर देश भर से इस प्रतियोगिता में प्रविष्टियाँ आयें.
इस बार भी जन संपर्क कार्यालय (पी.आर.ओ.) अमुवि से इस प्रकार की सूचना निर्गत की गयी है. सूचना पत्र में जो दो बातें निराशाजनक हैं वो ये हैं:
१- जन संपर्क कार्यालय से निर्गत सूचना पत्र में हिन्दी अनुवाद त्रुटिपूर्ण है जो कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित एवं ऐतिहासिक संस्थान की साख़ पर बट्टा लगाता है और हमारे विश्विद्यालय की अकादमिक दक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है. पत्र पर श्री राहत अबरार का नाम प्रेषक के रूप में अंकित है. पूरे पत्र को छोड़िये, यदि शीर्षक पर ही दृष्टि डाली जाये तो उसके अनुवाद में “essay” को “लेख” लिखा गया है जबकि इसका अनुवाद “निबन्ध” किया जाये तो उचित होगा. दूसरे, Ranking और rank का अनुवाद हिन्दी में क्रमशः “रैंकिंग’ और ‘रैंक’ ही कर दिया गया है. साथ ही इन दो शब्दों का लिंग बोध भी उचित नहीं है. इसका दुष्परिणाम यह होता है कि युवा “भाषा की शुद्धता” का महत्त्व नहीं समझ पाते. जनसंपर्क कार्यालय को इन लज्जापूर्ण कृत्यों से बचना चाहिए. सौभाग्य से यदि हम कल देश के शिक्षा संस्थानों की सूची में शीर्ष पर पहुँच गए और यह त्रुटियाँ भी करते रहे तो हमारी अकादमिक दक्षता एवं गुणवत्ता कटघरे में खड़ी कर दी जाएगी. यह आवश्यक नहीं कि आंकड़ों पर आधारित उपलब्धि सदैव “गुणात्मक कसौटी” पर खरी उतरे; उदाहर्णार्थ इकतीस प्रतिशत जनसँख्या द्वारा देश की सरकार लोकतान्त्रिक तरीकों से चुनी तो जा सकती है किन्तु इस सरकार में उपस्थित माननीय प्रतिनिधि देश की उनहत्तर प्रतिशत जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे, यही पश्चिमी लोकतांत्रिक प्रणाली का द्वेष है. हमें अपनी कार्यशैली में संख्यात्मक (quantitative) होने के साथ-साथ गुणात्मक (qualitative) भी होना होगा.
२- दूसरी बात यह कि विश्विद्यालय इस निबन्ध प्रतियोगिता को केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही करा रहा है जो निराशाजनक तथा हास्यपद दोनों ही है. यह हिन्दी एवं उर्दू में क्यूँ आयोजित नहीं की जा रही है? प्रशासन की अकर्मण्यशीलता को देखकर तो ऐसा लगता है कि इस सम्बन्ध में हिन्दी पर बात करना ही व्यर्थ है, केवल उर्दू की बात करते हैं. अमुवि में उर्दू का अग्रवर्ती अध्ययन (एडवांस स्टडीज़) विभाग है, उर्दू अकादमी है, हम भारतीय इतिहास में उर्दू साहित्य के जनकों में से माने जाते हैं किन्तु आज स्थिति शोचनीय है. हमें उर्दू साहित्य को नयी दिशा देनी चाहिए थी परन्तु हमसे आज अपने पूर्वजों की धरोहर का संरक्षण नहीं हो पा रहा है. इस पर सम्पूर्ण अलीगढ़ परिवार शांत है. विचित्र मौन का वातावरण विद्यमान है जो अवश्य ही मुझे कुण्ठित करता है. क्यूंकि उर्दू भाषा के संरक्षण, उर्दू शिक्षकों की भर्ती जैसे मामलों में हम लोगों द्वारा अपनी सरकारों पर आरोप लगाना उस समय तक तर्क संगत नहीं हो सकता जब तक हमारे स्वयं के परिसर में उर्दू जैसी भारतीय भाषा का वातावरण मौजूद न हो, जब तक अमुवि छात्रसंघ के विभिन्न पदों के प्रत्याशी अपने भाषणों में छात्र-छात्राओं को “तलवा-तलवात” कहना न छोड़ दें !! बायो-टेक्नोलॉजी का हिन्दी समकक्ष “जैव-प्रोद्योगिकी” तो अत्यंत प्रचलित है किन्तु उर्दू में इसका समकक्ष क्यूँ नहीं है? यदि है तो उसको भारत में प्रचलित क्यूँ नहीं किया जाता? भारत में उर्दू की दुर्दशा से जुड़े प्रश्नों के उत्तर देने में हमारा नैतिक उत्तरदायित्व बनता है क्यूंकि हम अलीगढ़ वाले बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक़ के उत्तराधिकारियों में से हैं. हम मुंह नहीं मोड़ सकते, दुनिया चाहे कुछ भी करे. उर्दू का क़ायदा (व्याकरण) हम तय करते आये हैं.
अब अगली बात, सितंबर २०१४ में आपने विश्वविद्यालय परिसर में नए संकेत/सूचना पट्ट (साइनबोर्ड) स्थापित करने का आदेश दिया था जो सराहना पूर्ण था. आदेश की प्रति मैंने पढ़ी तो आपको दो वर्ष पूर्व आज ही के दिन ईमेल किया था और यह आग्रह किया था कि विश्विद्यालय परिसर में इन संकेत पटों पर बहुत त्रुटियाँ हैं. जब सम्पूर्ण परिसर में नवीन पटों के स्थापन में अच्छी धनराशी व्यय होनी है तो इसको दक्षता पूर्वक करना बहतर है. मैंने अंग्रेज़ी, हिन्दी और उर्दू विभाग के भाषा विशेषज्ञों की सलाह लेने की भी बात की थी. किन्तु परिणाम अत्यंत निराशाजनक आये. पता नहीं आप सुधि छात्र-छात्राओं की सलाह पर क्रियान्वन क्यूँ नहीं कर पाते?
संकेत पट की त्रुटियों में जिसको मैंने ईमेल में अंकित किया था, वह यह है:
यहाँ वास्तविक शब्द फ़ारसी लिपि में यूँ लिखा जाना था कि इसका उच्चारण “शोअबा-ए-म्यूज़्योलॉजी” हो, “शआ मीज़योलोमी” नहीं !! यह देखकर विश्वास नहीं होता था हम अलीगढ़ में खड़े हैं. सौभाग्य से यह पट अब हटाया जा चुका है.
अब कुछ झलक नए संकेत पटों की देखते हैं.
१- इस चित्र में “त्रिमासिक” के स्थान पर “त्रैमासिक” शब्द होना चाहिए था क्यूँकी “त्रिमासिक” जैसा कोई शब्द होता ही नहीं है.
२- अब नीचे कुछ चित्र वो हैं जिनमें त्रुटिपूर्ण संकरण से दो भिन्न भाषाओँ के शब्दों को एक साथ लिख दिया गया है. यह भाषा की शुद्धता के विरुद्ध है. कृपया हिन्दी की पट्टी पर दृष्टि डालें:
४- उपरोक्त चित्रों के उर्दू भाग में भी और अधिक बहतर हो सकता था. जैसे ‘शोअबा-ए-बाटनी’ की जगह “शोअबा-ए-उलूम-ए-नबातात” हो सकता था. इस प्रकार का सूचना पट आज भी मनोविज्ञान विभाग (कला संकाय भवन) के बाहर देखा जा सकता है जहाँ उन्होंने “शोअबा-ए-इल्म-ए-नफ़सियात “ लिखा है. और भौतिकी विभाग के दूसरे पट पर “शोअबा-ए-तबिईयात “ लिखा है (चित्र देखें) [हालाँकि, इसमें भी शब्द शोअबा में ‘हमज़ा’ ग़लत लगा है] . एक अन्य स्थान पर “बिल्डिंग डिपार्टमेंट” की जगह पहले उर्दू (फ़ारसी लिपि) में “शोअबा-ए-तामीरात” हुआ करता था.
५- दो भाषाओँ के हास्यपद संकरण की कथा नीचे दिए गए चित्रों से और अधिक हास्यपद जान पड़ती है जहाँ अंग्रेज़ी शब्दों के बीच में आपको “एंड” मिलेगा और अंत में धड़ाम से हिन्दी का शब्द “विभाग” आ गिरेगा ! उर्दू में भी देखिए:
वहीं दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय, दिल्ली में भाषा की शुद्धता का स्तर देखिए:
६- कुछ जगह अंग्रेज़ी के संकेत पट तो हैं किन्तु उनके हिन्दी/ उर्दू रूपांतरण नहीं हैं. जैसे:
७- कुछ संकेत पट ऐसे हैं जिनमे अंग्रेज़ी को ही नागरी में लिख दिया गया है. उनका अनुवाद भी किया जा सकता था. जैसे:
आदरणीय कुलपति जी, अंतत: इतना कहना आवश्यक समझता हूँ कि हमें लोक प्रशासन में नीति विज्ञान में सिखाया जाता है कि कोई कार्य करने से पूर्व उसकी सुदृढ़ और तार्किक नीति अथवा योजना होना आवश्यक है. यदि यह न हो तो सारा निवेश व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है. आशा है अगले हिन्दी दिवस तक ये त्रुटियाँ नहीं मिलेंगी.
सधन्यवाद
मुहम्मद नवेद अशरफ़ी
शोधार्थी (लोक प्रशासन), अ.मु.वि. अलीगढ़