जवाहरलाल नेहरू ने 15 मई, 1950 को यंग इंडिया में लिखा था कि ‘भारत और यूरोप के कई देशों का इतिहास दिखाता है कि किसी भी देश में लंबे समय तक स्थायी संतुलन नहीं रह सकता है यदि वहां के अल्पसंख्यकों को दबाया जाता है या उन्हें बहुसंख्यकों के पीछे चलने के लिए बाध्य किया जाता है। यदि एक बार अल्पसंख्यकों को यह लग जाए कि उन्हें अपने रास्ते पर चलने की आजादी नहीं है तो उनकी नाराजगी को रोकने और उससे देश को अप्रभावित रखने की कोई निश्चित विधि नहीं होती है। यह बात मायने नहीं रखती कि तर्क उसके अपने पक्ष में है अथवा उसकी अपनी संस्कृति उपयुक्त है या नहीं? सिर्फ खोने का डर ही महत्वपूर्ण होता है।’
इसी प्रकार पर्सनल लॉ न्यायोचित हैं या नहीं, यह इतना प्रासंगिक नहीं है। निश्चित रूप से पर्सनल लॉ पुराने पड़ चुके हैं, लेकिन यदि अल्पसंख्यक उनके प्रति संवेदनशील हैं तो हमें कोई सुधार कार्यक्रम लागू करने से पहले उन्हें जागरूक और शिक्षित करने और उनके भरोसे को जीतने की जरूरत है। घर वापसी, लव जिहाद, कथित रूप से गोमांस रखने के आरोप में हत्या जैसी घटनाएं पर्सनल लॉ में सुधार के लिए अनुकूल माहौल नहीं पैदा कर सकती हैं। विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस बीएस चौहान ने अंतत: अपनी चुप्पी तोड़ी है और स्पष्ट किया है कि आयोग की रुचि सिर्फ लैंगिक न्याय आधारित कानूनों में है और हर धर्म के अपने पर्सनल लॉ बरकरार रहेंगे।
समान नागरिक संहिता के सुझाव पर मुस्लिम संगठनों के विरोध का औचित्य रेखांकित कर रहे हैं फैजान मुस्तफा
आयोग उनका मानकीकरण नहीं करने जा रहा है। सुधार का काम धर्म की आजादी, सेक्युलरिज्म और संविधान के तहत किया जाएगा। जस्टिस चौहान का बयान अल्पसंख्यकों की चिंता को शांत करता, इसी बीच आरएसएस विचारक एमजी वैद्य ने यह कहकर समान नागरिक संहिता पर बहस को गलत दिशा दे दी कि मुस्लिमों और आदिवासियों से संसद और विधानसभा चुनावों में मत देने का अधिकार ले लेना चाहिए यदि वे समान नागरिक संहिता को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा समान नागरिक संहिता का विरोध आरएसएस द्वारा हिंदू कोड बिल के विरोध की तरह ही है। आरएसएस, हिंदू महासभा, धर्म महामंडल, अखिल भारतीय धर्म संघ और अन्य संगठनों ने हिंदू कोड बिल का जमकर विरोध किया था।
हिंदू कोड बिल का विरोध करने के लिए 1949 में सिर्फ दिल्ली में ही आरएसएस ने 79 जनसभाएं की थीं। उसने इसे हिंदुओं के खिलाफ परमाणु बम बताया गया था। संविधान सभा में भी मौलिक अधिकारों के भाग में समान नागरिक संहिता को रखने के मुद्दे पर मतभेद था। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा को भरोसा दिया कि कोई भी सरकार इसके प्रावधानों को इस तरह से प्रयोग नहीं कर सकती कि इससे मुस्लिमों को बगावत करने के लिए मजबूर होना पड़े। इसके बाद भी यदि कोई सरकार समान नागरिक संहिता को थोपती है तो मेरी नजरों में वह सरकार स्वस्थ सोच वाली नहीं होगी। कृष्णास्वामी, जो कि समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे, ने माना था कि किसी समुदाय के विरोध को नजरअंदाज कर एक संहिता को लागू करना अनुचित होगा।
अनुच्छेद 44 के तहत कोई निर्णायक एकतरफा कदम उठाने से पहले अनुच्छेद 25 के तहत धर्म का मौलिक अधिकार, अनुच्छेद 26-ब के तहत प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या वर्ग को अपने धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबंधन करने का अधिकार और अनुच्छेद 29 के तहत अपनी विशिष्ट संस्कृति को सुरक्षित रखने के अधिकार को ध्यान में रखना होता है। मिनरवा मिल्स 1980 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि भाग-चार (निर्देशक सिद्धांतों) के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए भाग-तीन (मौलिक अधिकारों) द्वारा दी गई गारंटियों को नष्ट करना संविधान के मूल ढांचे को तहस-नहस करने के समान है। भारतीय संविधान भाग-तीन और भाग-चार के बीच मजबूत आधार के संतुलन पर बनाया गया है। एक पर दूसरे को बढ़ावा देना संविधान के संतुलन को बिगाड़ना है। कानून राज्य दर राज्य अलग-अलग हो सकते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि संविधान के निर्माताओं ने पूरे देश के लिए एक कानून के संबंध में पूर्ण समानता का इरादा नहीं रखा था, क्योंकि पर्सनल लॉ के संदर्भ में कानून बनाने का अधिकार संसद और राज्यों की विधानसभाओं, दोनों को दिया गया है। इस प्रकार 25 राज्यों और संघ में कम से कम पर्सनल लॉ अलग-अलग हो सकते हैं। लगता है कि कानूनी विविधता को बचाने के लिए ही पर्सनल लॉ को समवर्ती सूची में रखा गया। इस प्रकार एक देश एक कानून हमारे संविधान का ध्येय नहीं है। देश में सभी हिंदू भी एक कानून से शासित नहीं होते हैं। नजदीकी संबंधियों के बीच विवाह उत्तर भारत में निषेध है, लेकिन दक्षिण में अच्छा माना जाता है। हिंदू कोड बिल विभिन्न हिंदू समुदायों की प्रथाओं को मान्यता देता है। स्वयं संविधान नागालैंड की स्थानीय प्रथाओं की रक्षा करता है। इसी तरह का संरक्षण मेघालय और मिजोरम को मिला हुआ है। गोवा के बारे में एक बात लगातार कही जाती है कि वहां पहले से ही समान नागरिक संहिता है। दरअसल गोवा के हिंदू अभी भी पुर्तगाली परिवार एवं उत्तराधिकार कानून द्वारा शासित होते हैं।
1955-56 का संशोधित हिंदू कानून अभी भी उन पर लागू नहीं होता है। गोवा के मुस्लिमों के संबंध में यही बात सच है। 1937 के शरीयत कानून को गोवा में लागू नहीं किया गया है। जम्मू-कश्मीर में भी स्थानीय हिंदू कानून केंद्रीय स्तर पर लागू कानून से अलग है। 1937 का शरीयत कानून जम्मू-कश्मीर में मान्य नहीं है। यदि हम मुस्लिम महिलाओं के प्रति वास्तव में चिंतित हैं तो हमें उनकी शिक्षा और रोजगार के मामलों में कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
सरकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर अपना रुख सही करे, सबका साथ सबका विकास नारे को जमीन पर उतारने के लिए ठोस कदम उठाए, स्कॉलरशिप का लाभ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की तरह ही पिछड़े मुस्लिमों को भी दे, समान अवसर आयोग का गठन करे और अनुसूचित जातियों में गैर हिंदुओं को भी शामिल करने की पहल करे। इसी से वह मुस्लिम समाज का भरोसा हासिल कर सकेगी। यह सब होने पर हम समान नागरिक संहिता की स्वीकार्यता में ठोस बदलाव देख सकेंगे।
(लेखक हैदराबाद स्थित विधि विवि के कुलपति हैं)
साभार: दैनिक जागरण (एडिट पेज)
04/12/2016 04:23
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