मुहम्मद नवेद अशरफ़ी | 07 मार्च, 2017
श्री अशोक वाजपेयी जी की मौजूदगी महमानों, छात्र-छात्राओं और समस्त एएमयू परिवार के लिए बहुत अहम साबित हुई. वाजपेयी जी ने अपने व्याख्यान में “समकाल में युवा: स्वप्न और साहित्य” विषय पर जो बातें कहीं उनको संक्षिप्त शब्दों में यहाँ लिखा जा रहा है. यह स्मरण आधारित है, यथावत (verbatim) नहीं है.व्याख्यान के अंश:
हम हिंसात्मक युग में जी रहे हैं. चहुँओर हिंसा का वातावरण व्याप्त है. हर जगह हिंसा है. समाज में हिंसा, अख़बार में हिंसा, ट्रेन में हिंसा, सड़क पे हिंसा, घर में हिंसा, टीवी में हिंसा ! तरह तरह की बातें हो रही हैं जैसे किसी को भारतविरोधी कहना, देशद्रोही कहना. यह हिंसात्मक युग है.
हम नई ‘गोदामियत’ के अलम्बरदार हैं. “गोदामियत” कोई शब्द नहीं है; मैं दुष्टबुद्धि हूँ और मैंने यह गढ़ा है. दुनिया विचारों से बदलती है. युवाओं के विचारों से. लेकिन अब समझा जाता है कि दुनिया “चीज़ों” से बदलती है. दुनिया में जितने भी सफल बदलाव आये वो युवा विचारों से आये, गाँधी जी के संघर्ष को देखिए ! लेकिन आज युवा और बुज़ुर्ग अधिकाधिक वस्तुओं के अर्जन पर ध्यान दे रहे हैं. होड़ लगी हुई है कि किसके पास कितना ज़्यादा चीज़ों हो. भौतिकवाद शिखर पर है. यह नई गोदामियत है. मैंने एक मित्र के घर तीन मिक्सर मशीन देखीं और पूछा ये तीन मशीन कैसे? वो बोले, ‘जैसे ही दोस्त लोग बताते हैं कि बाज़ार में नयी मशीन आई है और अच्छा काम कर रही है, हम ले आते हैं’ !!
मध्यवर्ग असल देशद्रोही है. अर्थात यह मध्यवर्ग ही है जो अपनी पहचान और संस्कृति से जी चुराता है. जैसे उसका “मातृभाषा से अप्रेम”. वह ‘सही हिन्दी’ के बजाय ‘ग़लत अंग्रेज़ी’ बोलने में ज़्यादा सुख महसूस करता है. चाहे उसे अंग्रेज़ी आए या न आए.
जीवन में “सफलता” और “सार्थकता” के फ़र्क की समझ नहीं रही. जीवन को सफल बनाने की हर कोशिश की जा रही है किन्तु जीवन के “सार्थक” बनाने के ध्येय पर कोई ध्यान नहीं है. हम अपनी निगाह में बे-ऐब हैं. हमें स्वयं पर कोई संदेह नहीं और हमारे यहाँ वो जो सबसे ऊपर है, उसे तो कोई शक नहीं.
शब्दों का टोटा है. संवाद की आदत नहीं रही. “भाषाई अनाचार” और “बौद्धिक अश्लीलता” फैली हुई है.
झूठ जगविजयी है और सच अल्पसंख्यक हो गया है. अमरीका और उसके हिमायतियों द्वारा सामूहिक विनाश के हथयारों का झांसा देकर ईराक पर थोपा गया युद्ध इसकी मिसाल है.
राजनेता और आध्यात्मिक नेता भ्रष्ट हो गए हैं. इसीलिए जब कोई कथित आध्यात्मिक नेता गिरफ्तार होता है तो मुझे बहुत “आध्यात्मिक सुख” मिलता है; हालाँकि मेरा आस्था से कोई नाता नहीं रहा है.
मॉल परम्परा बर्बाद कर रही है. प्रश्न पूछने, उत्तर तलाशने और विकल्पीयता की परम्परा ख़त्म हो रही है. दस हज़ार की भीड़ से भरे मॉल में नौ हज़ार नौ सो साठ लोग सिर्फ़ यह सोच ही रहे हैं कि जब अशोक वाजपेयी मॉल से एक शर्ट ख़रीदकर पहन सकता है तो हम क्यों नहीं??? यह नए क़िस्म का लालच है. भौतिकवाद और तृष्णा से भरा लालच.
टीवी हमें असभ्य बना रहा है. महिलाओं, बुजुर्गों, कमज़ोरो के साथ होते अत्याचार हमें अब उद्वेलित या विचलित नहीं करते. दिल्ली में आपकी ही उम्र के अमीर घरानों के युवा शराब पी-पी कर हुडदंग और अपराध कर रहे हैं. जनता उदास (neutral) हो गयी है. और उदास जनता अपने लिए भी और लोकतंत्र के लिए भी नुकसानदेह है.
इंसानियत द्वारा मुख्यत: तीन स्वप्न देखे गए हैं. पहला ‘स्वतंत्रता’ का स्वप्न, दूसरा ‘समता’ का, और तीसरा ‘न्याय’ का. भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में पुरातन से ही ‘स्वतंत्रता’ का अर्थ ‘मुक्ति’ से रहा है. मुक्ति दो तरह की होती है. व्यक्तिगत मुक्ति और सामूहिक मुक्ति. महात्मा गाँधी ने ‘सामूहिक मुक्ति’ का स्वप्न युवा अवस्था में ही देखा और ‘हिन्द स्वराज’ की बात की. इसी तरह समता और न्याय के स्वप्न भी युवा स्वप्न हैं.
हमें सुनिश्चित करना है कि जीवन की दौड़ में ये सपने हाशिए पर न चले जाएँ. यह तीन स्वप्न क़ानूनी मसले नहीं हैं. ये तो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी होने चाहिए. ये आपके अपने परिवार, संस्थान से जुड़े स्वप्न हैं.
राजनैतिक बटवारे से अपने और पराए बनाये जा रहे हैं. यह राजनैतिक अतिक्रमण है. हमें देखना है कि जिन तीन स्वप्नों की आशा हम दूसरों से करते हैं तो क्या हम भी दूसरों यही अधिकार दे रहे हैं??
हम स्कूटर, मोबाइल और मकान के स्वप्न देखते हैं. ये टुच्चे सपने हैं. हम “अश्लील वैभव प्रदर्शन” में आकंठ डूबे हैं. हमें शर्म आना बंद बंद हो गयी है. हम टुच्चे हो गए हैं. युवा स्वयं को इस टुच्चेपन से बचाएं.
अंत में साहित्य पर बोलते हुए वाजपेयी जी ने कहा:
साहित्य वह जगह है जहाँ “सपने” और “सच्चाई” एक साथ रहते हैं. साहित्य वैकल्पिक दुनिया (alternative world) के सृजन की प्रेरणा देता है. साहित्य “फैसला” देने से रोकता है, चरित्र हनन से रोकता है. किसी के व्यक्तिगत जीवन अथवा जीवन शैली को तोड़-मरोड़ने के दुस्साहस से परहेज़ करता है. युवाओं ने साहित्य का दामन छोड़ दिया है. उन्होंने बदलाव लाने की जुर्रत को त्याग दिया है.
साहित्य समग्रीकरण या सरलीकरण से बचता है. यह पल-पल की खबर देता हैं. यह ब्योरों में विश्वास रखता हैं.
साहित्य विस्मृति के ख़िलाफ़ एक अभियान है. यह पुरातन की याद दिलाता है. भविष्य, वर्तमान और भूत को जोड़ता है. साहित्य मनुष्य को बताता है कि 17वीं शताब्दी में भी अमुक मनुष्य था. जबकि कुत्ते को पता नही कि 17वी शताब्दी में भी कोई कुत्ता था या नहीं.
साहित्य हमारे समय का ‘आदमीनामा’ होता है. यह इनसानों के बीच “‘हम’ और ‘उन’ की दुई” [binary of us and them] को ख़त्म करता है.
साहित्य आध्यात्म है. साहित्य बताता है कि एक ब्रह्माण्ड है, उसके भीतर जीवों में पारस्परिक सम्बन्ध हैं तथा जीवो के जीवों पर कर्तव्य हैं. यही सच्चा आध्यात्म है. यही विराट का स्पंदन है जो आज धर्मों से गायब है. साहित्य में आध्यात्म बचा है.
अंत:करण के सारे बुर्ज ढह चुके हैं. केवल साहित्य ही बचा है. हमें साहित्य चाहिए क्यूंकि हमें अंत:करण चाहिए!
मुहम्मद नवेद अशरफ़ी राजनीतिशास्त्र विभाग, अमुवि में लोकप्रशासन के शोधार्थी हैं.