साथियों,
1923 में भगत सिंह आपके सूबे के ही शहर कानपुर आए थे और यहाँ दूसरे क्रांतिकारियों से मुलाक़ात की. भगत सिंह ने जिस परिवार में जन्म लिया और परवरिश पायी उसके सदस्य पहले ही ग़दर आंदोलन से जुड़े थे और आज़ादी की तहरीक़ में बड़े कारनामे अंजाम दे चुके थे. ग़दर और सिंगापूर म्युटिनी में बहुत ज़्यादा तादाद में लोगों ने क़ुर्बानियां दी थीं. लेकिन ग़दर तहरीक़ की सबसे बड़ी नाकामयाबी यह रही कि उसमे अवाम ने साथ नही दिया. लोगों का योगदान कम रहा.
जहाँ तक भगत सिंह का सवाल है, उनके तौर तरीक़ों में जन-संपर्क अहम रहा और वो जनता के हीरो के रूप में उभरे. भगत सिंह उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी तीनों ज़ुबानों में माहिर थे। उन्होंने लोगों के बीच रहकर “सोशलिज्म” को बढ़ावा दिया। जब वह सोशलिज्म की बात करते थे तो भेदभाव रहित जनाधिकार और जनभागीदारी पर बल देते थे. किसानों, मज़दूरों और दूसरे कमज़ोर तबको के हितों की बात किया करते थे. उनके नज़दीक इसमें कोई फर्क नहीं था कि लार्ड इरविन इक़्तेदार में हों या तेज बहादुर सपरु ! उनका मानना था कि क़ौमी तहरीक़ में जब तक किसान और मज़दूर साथ नहीं आएंगे तब तक आज़ादी की लड़ाई अधूरी रहेगी. और कांग्रेस में नेहरू अकेले वो शख़्स हैं जो यह चाहते हैं और कहते हैं.
जहाँ तक उनकी लड़ाई के तरीक़ों की बात की जाये तो वो कहते थे कि बेशक मैंने पहले हिंसा का सहारा लिया लेकिन अब मैं इन्क़लाबी हूँ. भगत सिंह कहते थे कि आज़ादी की लड़ाई में समय-समय पर हिंसा और अहिंसा दोनों की ज़रुरत पड़ती हैं. भगत सिंह ने “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे को आम किया। यह इन्क़लाब का नारा कांग्रेस ने बाद में 1942, 45, 47 में ख़ूब इस्तेमाल किया। लेकिन आज़ादी के बाद वो आज इसे भूल गए हैं. इस नारे को जब भगत सिंह लगाते थे तो कहते थे कि मैं जिस “इन्क़लाब” की बात करता हूँ वह “सोशलिस्ट इन्क़लाब” है और इसका मतलब यह है कि जब हालात बदलें तो वो किसानों और मज़दूरों के हित में हों. भगत सिंह का इन्क़लाब ‘सोशलिस्ट इन्क़लाब’ था जहाँ ग़ैर-बराबरी का तसव्वुर भी न था।
भगत सिंह के साथ उनके साथी भी शहीद हुए थे। उनकी क़ुर्बानियां किसी भी लिहाज़ से भगत सिंह की क़ुरबानी से कम नहीं हैं. लेकिन भगत सिंह की क़ुरबानी इस वजह से ख़ास हो जाती है क्योंकि उन्होंने नए भारत के समानता पर आधारित उसूल पेश किए. और यह बड़ी अहम बात है. फंडामेंटल राइट्स रेसोल्यूशन, जिसे हम कराची रेसोल्यूशन भी कहते हैं और जो आज भी पढ़ने लायक है, उसमे भगत सिंह के ख़्यालात का बहुत असर दिखता है. हालाँकि वो भगत सिंह की शहादत के बाद नेहरू के ज़रिए पेश किया गया. उस रेसोल्यूशन में नए भारत का वही नक्शा है जो भगत सिंह के ज़हन में रहता था. इंसानी हुक़ूक़ और सनअतों (इंडस्ट्रीज़) पर स्टेट की ओनरशिप वग़ैरह वो बुनियादी उसूल थे जिन्हें हमें आगे लेकर जाना चाहिए थे. जिन लोगो ने आज बी.जे.पी. को वोट दिए है, उनके दादा-परदादाओं ने आज़ादी की लड़ाईयाँ लड़ी हैं. हमारी ज़िम्मेदारी यह है कि हम अपने हुक्मरानों से यह मुतालबा करें कि आप भगत सिंह के उसी नक़्शे को कहाँ तक ले जाने को तैयार हैं? अवाम की ही ज़िम्मेदारी बनती है कि तमाम इख़्तेलाफ़ और इत्तेफ़ाक़ के बावजूद भी वो भारत के उसी नक़्शे के लिए कोशिश करें, नास्तिक होना या न होना एक अलग मसला है. हालाँकि भगत सिंह का अपना नास्तिक होने का नज़रिया बहुत पुख्ता था जिसे उन्होंने बड़े असरदार अंदाज़ में अंग्रेज़ी में अवाम के सामने रखा था.
24/03/2017 02:25
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