कविता कृष्णपल्लवी
‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की चिंता प्रकट करते हुए कार्यक्रम हुए। 1970 में इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई और यह बात अनायास नहीं लगती कि इसके लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया जो लेनिन का जन्मदिन है।
लेनिन के बहाने क्रांति पर बातें हों, इससे बेहतर तो यही होगा कि पर्यावरण के विनाश पर अकर्मक चिंतायें प्रकट की जाएँ और लोगों को ही कोसा जाये कि अगर वे अपनी आदतें नहीं बदलेंगे, और पर्यावरण की चिंता नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर क़यामत आ जायेगी। यानी सामाजिक बदलाव के बारे में नहीं, महाविनाश के दिन के बारे में सोचो। हॉलीवुड वाले इस महाविनाश की थीम पर सालाना कई फ़िल्में बनाते हैं।
पृथ्वी दिवस पर विभिन्न बुर्जुआ सरकारें, साम्राज्यवादी देशों की जुबां बोलने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ और देशी-विदेशी पूँजीपतियों की फंडिंग से चलने वाले एन.जी.ओ. सबसे अधिक प्रोग्राम करते हैं। इनमें लोगों को पेड़ लगाने, फिजूलखर्ची की उपभोक्ता संस्कृति से बचने, नदियों को साफ़ करने, तालाबों और जंगलों को बचाने, प्लास्टिक का इस्तेमाल न करने आदि-आदि की राय दी जाती है।
ऐसा लगता है मानो जनता और जनता की बुरी आदतें, या मशीनीकरण, या आधुनिकता ही पर्यावरण-विनाश के लिए दोषी हैं। इस तरह, असली अपराधी को परदे के पीछे छुपा दिया जाता है और सारी ज़िम्मेदारी लोगों पर डाल दी जाती है।
पृथ्वी के पर्यावरण और पारिस्थितिक-तंत्र के विनाश के लिए लोग और उनकी बुरी आदतें नहीं, बल्कि मुनाफ़े की अन्धी हवस और गलाकाटू होड़ ज़िम्मेदार है। ये पूँजीपति हैं जो कारखानों की गन्दगी से नदियों, समन्दर, आकाश और हवा को दूषित करते हैं और अवशिष्ट-शोधन की तकनीक मौजूद होते हुए भी सारी गन्दगी वातावरण में प्रवाहित करके अपना पैसा बचाते हैं।
ये पूँजीपति हैं जो मुनाफ़े के लिए जेनेटिक बीजों, कीटनाशकों और रसायनों से खेती की पूरी ज़मीन को पाट देते हैं। ये पूँजीपति हैं जो स्वच्छ और पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों की मौजूदगी के बावजूद, और तकनीक की मौजूदगी के बावजूद जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल करके ध्रुवों की आइस कैप्स के पिघलने, ग्लेशियरों के सिकुड़ने, ओज़ोन परत में छेद कर देने और ग्लोबल वार्मिग जैसी ख़तरनाक पर्यावरणीय समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं।
ये पूँजीपति हैं जो वन-संपदा के लिए और खनिजों के लिए अंधाधुंध जंगलों का विनाश कर रहे हैं। ये पूँजीपति हैं जो बाज़ारों के बँटवारे और मुनाफ़े की होड़ के लिए विनाशकारी युद्ध लड़ते हैं और सर्वाधिक प्रदूषण पैदा करने वाले दुनिया के विशालतम उद्योग – हथियारों के उद्योग को खड़ा करते हैं।
अराजकता पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली का अनिवार्य अन्तर्निहित तत्व होती है। मुनाफ़े के लिए गलाकाटू होड़ करते पूँजीपति सिर्फ़ अपने मुनाफ़े के बारे में सोचते हैं, वे मनुष्यता के या स्वयं अपने भी दूरगामी भविष्य के बारे में नहीं सोच सकते। पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी भविष्य के बारे में सोचने का काम पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी, यानी सरकार का होता है। किन्तु वह भी पूँजीपतियों के दूरगामी हित के बारे में इतनी दूर तक नहीं सोच सकती कि पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने के लिए कारगर कदम उठा सके।
पूँजीवादी व्यवस्था की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उसमें धुम्रपान-निषेध और मद्य-निषेध का प्रचार भी होता है और बीडी-सिगरेट-शराब का भी प्रचार होता है और बिक्री होती है। पूँजीवादी व्यवस्था में हर समस्या का समाधान अपने-आप में स्वयं समस्या बन जाता है। कीटनाशकों-रसायनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए ‘ऑर्गनिक फ़ूड’ का प्रचार होता है और देखते ही देखते उसकी एक विराट इन्डस्ट्री खड़ी हो जाती है, मुनाफ़ा कूटने का एक नया क्षेत्र विकसित हो जाता है।
‘क्लीन एनर्जी’ का शोर मचता है और सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा उत्पादन के सेक्टर में दैत्याकार देशी-विदेशी इजारेदार घराने पैदा हो जाते हैं। पुरानी समस्या भी मौजूद रहती है और उसे दूर करने के नाम पर मुनाफ़ा कूटने का नया सेक्टर और नयी समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के उपकरण बनाने वाली कम्पनियाँ भी खनिजों के लिए प्रकृति का अंधाधुंध विनाश करती हैं और जमकर हवा-पानी को प्रदूषित करती हैं।
कुछ ‘सादा जीवन उच्च विचार’ टाइप लोग “प्रकृति की ओर वापसी” का, मितव्ययी होने का नारा देकर समस्या का हल ढूँढ लेना चाहते हैं। वे आधुनिकता, टेक्नोलॉजी और उपभोक्ता-संस्कृति से छुटकारा पाने का सुझाव देते हैं। पहली बात यह कि दोष आधुनिकता या तकनोलोजी का नहीं है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल यदि मुनाफ़े को केंद्र में न रखकर सामाजिक हित को केंद्र में रखकर होगा तो वह लगातार मानव जीवन को उन्नत बनाने का काम करती रहेगी।
दूसरी बात, जब तक समाज का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा तब तक हम एक-एक नागरिक को उपभोक्ता संस्कृति से दूर करने का आध्यात्मिक टाइप चाहे जितना आन्दोलन चला लें, इससे कुछ नहीं होगा। हमारी चेतना और संस्कृति सामाजिक परिवेश से निर्धारित होती है और लोभ-लाभ के सामाजिक ढाँचे को बदले बिना उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव को समाप्त नहीं किया जा सकता।
तीसरी बात, आम लोगों की “बुरी आदतों” से पर्यावरण को 1-2 प्रतिशत ही नुकसान होता है (और वे बुरी आदतें भी अपना सामान बेंचकर मुनाफ़ा कमाने के लिए पूँजीपति ही पैदा करते हैं)! पर्यावरण को 98-99 प्रतिशत नुकसान पूँजीवादी उत्पादन, खनिजों के अनियंत्रित दोहन, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल, मुनाफ़े की होड़ से जन्मे विनाशकारी युद्धों और युद्ध-सामग्री के उत्पादन के विशालतम वैश्विक उद्योगों आदि से होता है।
पूँजीवाद जब पर्यावरण-विनाश को रोकने के लिए और इसके प्रभाव से लोगों को बचाने के लिए कुछ करता है तो उसे भी मुनाफ़ा कूटने का साधन बना देता है। देखते-देखते हवा और पानी शुद्ध करने वाली मशीनों से बाज़ार पट जाता है, नदियों को साफ़ करने वाली बड़ी-बड़ी मशीनों का उत्पादन होने लगता है, नए जंगल लगाने के नाम पर ठेकेदार और सरकारी अमले-चाकर चांदी काटने लगते हैं।
तब कुछ नासमझ, भोले-भले लोगों की मूर्खता पूँजीवादी व्यवस्था के काम आती है। ये संत-महात्मा टाइप लोग आम जनता को मोबिलाइज करके नदियों-तालाबों की सफाई में लग जाते हैं। वे जितना साफ़ करते हैं, पूँजीवादी उत्पादन उससे कई गुना अधिक गंदा करता है। इस तरह जनता से मुफ्त वे पूँजीवाद की गंद साफ़ कराते हैं और जनता को या प्रकृति को इसका कोई लाभ भी नहीं मिलता।
ये नेकनीयत कूपमंडूक इस बात को नहीं समझ पाते कि पूरी व्यवस्था ही यदि प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार है तो इस व्यवस्था के भीतर जनशक्ति को जागृत और लामबन्द करके थोडा प्रदूषण अगर वे दूर भी कर लेंगे तो इससे कुछ नहीं होगा, उलटे उनका यह सद्प्रयास शासक वर्ग और इस व्यवस्था के लिए एक स्पीड-ब्रेकर का, एक सेफ्टी-वाल्व का और एक विभ्रम पैदा करने वाले परदे का ही काम करेगा।
इतनी शक्ति यदि वे यह प्रचार करने में लगाते कि पर्यावरण-विनाश का मुख्या कारण मुनाफ़े पर टिकी उत्पादन की व्यवस्था है, अतः यदि धरती को बचाना है तो पूँजीवाद को एक गहरी क़ब्र में दफन करना होगा; तो उनका श्रम कुछ सार्थक भी होता।
पर्यावरण विनाश पर पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के कुकर्म कटघरे में न आयें, इसके लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों की एजेंंसियों और ट्रस्टों से वित्त-पोषित एन.जी.ओ. पृथ्वी दिवस खूब ज़ोर-शोर से मनाते हैं। वे पर्यावरण विनाश के लिए जंगलों के कटने, प्रकृति के अनियंत्रित दोहन, रसायनों पर निर्भर खेती, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल और फिजूलखर्च उपभोक्ता-संस्कृति आदि की खूब बातें करते हैं, पर यह कत्तई नहीं बताते कि इसके लिए पूँजीपतियों की मुनाफ़ाखोरी और पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है।
पूँजीपतियों की “दानशीलता” के भरोसे चलने वाले कुलीन भिखमंगों की ये संस्थाएँ भला ऐसा कर भी कैसे सकती हैं? “पर्यावरण-सुधारवाद” का खोमचा सजाये ये लोग दरअसल पूँजीवादी विभ्रम को ही माल के रूप में बेचते हैं। ये पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा-पंक्ति, धोखे की टट्टी और स्पीड-ब्रेकर का काम करते हैं। यह एन.जी.ओ. ब्रांड प्रगतिशीलता बिना मेहनताना दिये पूँजीवाद की गन्दगी जनता से साफ करवाती है।
पर्यावरण का सवाल सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। पूँजीवादी मुनाफ़े की अंधी हवस और होड़ उत्पादक मनुष्य के साथ ही प्रकृति को भी निचोड़ रही है। धरती के पर्यावरण को बचाना है तो पूँजीवाद को दफनाना होगा। पूँजीवादी समाज में जनता को यदि व्यवस्था-सजग बनाए बिना “पर्यावरण-सजग” बनाया जाएगा तो होगा यह कि पूँजीवाद द्वारा चारो ओर भर दी गयी गन्दगी को जनता पर्यावरण बचने की चिंता से सराबोर होकर थोड़ा-बहुत साफ़ करती रहेगी, ताकि पूँजीवाद उसे फिर गंदा कर सके। यानि “पर्यावरण-सुधारवाद” से प्रेरित लोग पूँजीवाद को थोडा और ‘ब्रीडिंग स्पेस’ और ‘ब्रीदिंग स्पेस’ मुहैया कराने से अधिक कुछ भी नहीं करते। इसीलिये साम्राज्यवादियों और देशी पूँजीपतियों द्वारा वित्त-पोषित एन.जी.ओ. नेटवर्क पर्यावरण को लेकर ‘पृथ्वी दिवस’ पर इतना चिंतित हो जाता है।
साभार: मज़दूर बिगुल