अंग्रेज़ों ने भारत पर शासन करने के लिए ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई। इसी नीति के तहत अंग्रेज़ इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम शासकों के कार्यकाल को हिंदुओं पर अत्याचार के रूप में प्रस्तुत किया ताकि हिंदु-मुस्लिम एकता को तार-तार किया जा सके। उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल प्रो0 बिशंभरनाथ पांडेय ने ख़ुदाबख्श वार्षिक व्याख्यान माला में 1985 में टीपू सुलतान की वास्तविक छवि पेश की। 23 दिसंबर 1906 को जन्में प्रो0 पांडेय प्रखर गांधीवादी थे। वे उत्तर प्रदेश में विधायक (1952-53) विधान पार्षद (1972 व 1974) और भारतीय संसद में राज्यसभा सदस्य (1976 व 1982) रहे। 1976 में उन्हें पदम श्री से सम्मानित किया गया। 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी0वी0 नरसिंहराव के हाथों उन्हें ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता अवार्ड‘ भी दिया गया। वह गांधी स्मृति व दर्शन समिति के उपाध्यक्ष थे। प्रो0 पांडेय ने अपने शोधपूर्ण अध्यापन के जरिए भारत के मध्यकालीन इतिहास की सही तस्वीर पेश करने का उल्लेखनीय काम किया है। प्रस्तुत है उनके व्याख्यान के कुछ महत्तवपूर्ण अंशः
“……………अब मैं कुछ ऐसे उदहरण पेश करता हूँ, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृृत किया जाता है। 1928 ई0 में जब मैं इलाहाबाद में टीपू सुलतान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली काॅलेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने “हिस्ट्री-एसोसिएशन” का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया। ये लोग काॅलेज से सीधे मेरे पास आए थे। इसलिए उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैंने टीपू सुल्तान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज़्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः “तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू ज़बरदस्ती उन्हें मुसलमान बनाना चाहता था।”
इस पाठ्य पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डाॅ0 हर प्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। मैंने तुरन्त डाॅ0 शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुलतान के सम्बंध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना “मैसूर गज़ेटियर” से उद्धृत की है। मैसूर गज़ेटियर न तो इलाहाबाद में और न ही इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डाॅ0 शास्त्री ने जो बात कही है, उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री मन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजे़टियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।
प्रोफेसर श्री मन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राह्मणों द्वारा आत्महत्या की घटना “मैसूर गज़ेटियर” में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होने मुझे सूचित किया कि टीपू सुलतान के प्रधानमंत्री पुर्नेया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राह्मण कृष्णाराव थे। उन्होनें मुझे ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुलतान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होेंने टीपू सुलतान के तीस पत्रों की फोटो कापियाँ भी भेजीं जो उन्होंने श्रंगरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुलतान के अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे।
मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपू सुलतान प्रतिदिन नाशता करने से पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रीरंगापटनम के किले में था। प्रोफेसर श्री मन्टइया के विचार में डाॅ0 शास्त्री ने यह घटना कर्नल वाइल्स की किताब ‘हिस्ट्री आॅफ मैसूर’ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुलतान का इतिहास’ एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनुदित किया है, जो महारानी विक्टोरिया की निजी लाइब्रेरी में थी। खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल वाइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल गलत एवं मनगढ़त है।
डाॅ0 शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठयक्रम के लिए स्वीकृत थी। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कलीन कुलपति सर आशुतोष चैधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिलें में अपने सारे पत्र-व्यवाहरों की नकलें भेजीं और उनसे निवेदन किया कि इतिहास की इस पाठ्य-पुस्तक में टीपू सुलतान से सम्बंधित जो ग़लत और भ्रामक वाक्य आए हैं, उनके विरूद्ध समुचित कार्रवाई की जाए। सर आशुतोष चौधरी का शीघ्र ही जवाब आ गया कि डाॅ0 शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है।
परन्तु मुझे यह देखकर आश्चार्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई0 में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी। इस सिलसिले में महात्मा गाँधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अखबार ‘यंग इण्डिया’ में 23 जनवरी 1930 ई0 के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-
“मैसूर के फतह अली (टीपू सुलतान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानों वह धर्मान्धता का शिकार हो। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि सुलतान ने अपनी हिन्दू प्रजा पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ सुलतान के बहुत अच्छे सम्बंध थे………. मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुलतान ने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य को 1793 ई0 में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपू सुलतान ने शंकराचार्य को पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वह उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में सुलतान ने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फसल अच्छी होती है और खुशहाली आती है।”
यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। यंग इंडिया में आगे कहा गया कि टीपू सुलतान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरामण, श्री निवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों को जमीनों एवम् अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर सुलतान के महलों के अहाते में थे। यह उनके खुले ज़हन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है। इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू सुलतान एक महान शहीद था जो किसी भी दृष्टि से आज़ादी की राह का हक़ीकी शहीद माना जाएगा, सुलतान को अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपू ने आज़ादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और जब लाश अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी सुलतान के हाथ में तलवार थी, वह तलवार जो आज़ादी हासिल करने का अहम ज़रिया था। टीपू सुलतान के ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने योग्य हैंः
‘शेर की एक दिन की जिंदगी लोमड़ी के सौ सालों की जिंदगी से बेहतर है।”
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