नोट: यह लेख दारुलमुसन्नेफीन शिबली एकैडमी के पत्र “मआरिफ़” के जून 2017 अंक में (पृष्ठ 454-460) उर्दू में प्रकाशित हुआ है. अवाम इन्डिया के लिए इसका अनुवाद मुहम्मद नवेद अशरफ़ी ने किया है.
भारतीय मुसलमानों की अहम पूँजी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आज़ादी के बाद से विभिन्न मसलों से दो-चार हो रहा है और अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहा है. इस समय ख़ास तौर पर यह संस्थान बहुत नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र उच्चतम न्यायालय में विमर्श-अधीन है. पिछली [यूपीए] सरकार ने उच्चतम न्यायलय में एएमयू के अल्पसंख्यक चरित्र की हिमायत की थी. इसके विपरीत मौजूदा सरकार एएमयू और जामिया मिलिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक चरित्र के ख़िलाफ़ है. सरकार के महाधिवक्ता (अटॉर्नी जनरल) का कहना है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश की सरकार कोई अल्पसंख्यक संस्थान स्थापित नहीं कर सकती. इसी कारण वर्तमान सरकार 1967 की पांच सदस्यीय पीठ के निर्णय और 2005 के इलाहाबाद उच्च न्यायलय के उस निर्णय से सहमत है जिसमे यह स्थापित किया गया है कि एएमयू एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. सरकार के इस फैसले ने बहुत नाज़ुक परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं.
इस विमर्श में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार क्यूँ दिए गए हैं? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 में किसी विशेष संस्कृति, लिपि तथा भाषा के संरक्षण का अधिकार दिया गया है. यह संरक्षण सबसे बहतर तरीक़े से एक अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान में ही हो सकता है. संविधान का अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है कि वे अपनी मर्ज़ी के शिक्षण संस्थान स्थापित करें और चलायें. भारत में अधिकतर अल्पसंख्यक संस्थान भाषाई अल्पसंख्यकों के हैं. देश में सैंकड़ों सिन्धी, तमिल, तेलुगु और गुजरती अल्पसंख्यक संस्थान हैं. एक अल्पसंख्यक संस्थान में उस को स्थापित करने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के लिए सीटें आरक्षित की जा सकती हैं. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15(5) अल्पसंख्यक संस्थानों को यह छूट देता है कि वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण न रखें.
अनुच्छेद 30(2) के अंतर्गत शिक्षण संस्थानों को सहायता/अनुदान प्रदान करते समय राज्य अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ पक्षपात नहीं कर सकता. उच्चतम न्यायालय पहले ही यह स्पष्ट कर चुका है कि अनुच्छेद 30 में जिन शिक्षण संस्थानों की बात की गयी है उनमें विश्वविद्यालय भी शामिल हैं और अल्पसंख्यक अपने इदारों को अपनी मर्ज़ी से जिस तरह चलाना चाहें, चला सकते हैं. इस प्रकार एक अल्पसंख्यक वर्ग यदि चाहे तो एक विश्वविद्यालय बना सकता है जो सरकारी निगरानी में काम करेगा और उसकी डिग्रियाँ दूसरे विश्विद्यालय की डिग्रियों के बराबर होंगी. उच्चतम न्यायालय का मानना है कि संविधान के ये प्रावधान अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए बहुत अहम हैं.
1967 के अज़ीज़ बाशा मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि गवर्नर जनरल ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को स्थापित किया था इसलिए मुसलमानों को इसके प्रशासन या देख-रेख का कोई अधिकार नहीं है. यह एक अजीब बात है कि इस मुक़दमे में एएमयू का पक्ष सुने बिना ही सर्वोच्च न्यायलय ने उसके ख़िलाफ़ फ़ैसला सुना दिया. न्यायालय की यह दलील अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय अधिनियम 1920 को आधार बनाकर दी गयी थी. न्यायालय का यह मानना था कि मुसलमानों ने अपनी यूनिवर्सिटी की डिग्रियों की मान्यता के बदले में अपने अल्पसंख्यक चरित्र को क़ुर्बान कर दिया था.
अज़ीज़ बाशा केस ने जो संदेह पैदा किये थे 1981 के अधिनियम ने उनको दूर कर दिया था. देश की विधायिका ने यह माना था कि [1920 के अधिनियम में] पार्लियामेंट ने सिर्फ़ एएमयू को क़ानूनी हैसियत प्रदान की थी और वास्तव में इसे मुसलमानों ने ही स्थापित किया था. पार्लियामेंट ने यह भी स्पष्ट किया था कि मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी दोनों एक हैं. इस लिए आज भी यह कहना कि अज़ीज़ बाशा का फ़ैसला अभी भी अच्छा क़ानून है, ग़लत होगा. लेकिन 2005 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय संसद के 1981 वाले संशोधन को रद्द कर दिया. हालाँकि भारतीय संसद द्वारा बनाये गए क़ानून की संवैधानिक वैधता को जानने का केवल एक तरीक़ा यह है कि संसद ने जिस विषय पर क़ानून बनाया है वह राज्य की विधानसभा के कार्यक्षेत्र में न हो. एएमयू को संविधान की सातवीं अनुसूची की संघीय सूची में क्रम संख्या 63 पर विशेष रूप से स्थान दिया गया है इसलिए इस के बारे में संसद की विधायी शक्तियों को लेकर सवाल नहीं उठाया जा सकता है. यह सवाल अज़ीज़ बाशा मामले में भी नहीं उठा था लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2005 में यह नया सवाल खड़ा कर के संसद की विधायी शक्ति को सीमित करने का प्रयास किया है. बहुत से मुक़दमों में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों को संसद ने रद्द किया है. अभी हाल ही, महमूदाबाद के राजा के हक़ में जो फ़ैसला माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किया था, उसे सरकार ने एक अध्यादेश के ज़रिए रद्द कर दिया. कुछ दिनों पहले वोडाफ़ोन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संसद ने एक संशोधन द्वारा बदल दिया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2005 के फ़ैसले ने 1981 के संशोधन को निरस्त करके संविधान के एक महत्वपूर्ण प्रावधान का उल्लंघन किया है.
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भारतीय संसद को यह अनुमति नहीं है कि वह कोई ऐसा क़ानून बनाये जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों से टकराए, किन्तु नागरिकों के मौलिक अधिकारों के सुरक्षा के लिए संसद को हर तरह के क़ानून बनाने का हक़ है. 1920 का अधिनियम एक ऐसा क़ानून था जो विधायिका ने मुसलमानों के मौलिक अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए बनाया था. इसी तरह के दूसरे क़ानून कई राज्यों में अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों को क़ानूनी दर्जा देने के लिए पारित किये गए. यूजीसी अधिनियम-1956 की धारा 3 के तहत मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने डीम्ड विश्वविद्यालय स्थापित किए.
इस पर कोई मतभेद नहीं है कि मौलिक अधिकार कभी भी रद्द नहीं किये जा सकते. अज़ीज़ बाशा मामले में उच्चतम न्यायलय ने यह ग़लत फ़ैसला किया कि मुसलमानों ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के निज़ाम को चलाने का अधिकार सरकार को सौंप दिया था. इसका मतलब यह हुआ कि कोई भी अल्पसंख्यक समूह अपनी यूनिवर्सिटी स्थापित नहीं कर सकता क्यूंकि उसको क़ानूनी दर्जा सरकार ही दे सकती है और ऐसा करते ही वह सरकारी इदारा हो जाएगा. न्यायालय का यह कहना ऐसा ही है कि किसी के बच्चे की पैदाइश के बाद उस का पंजीकरण नगरपालिका में ही हो सकता है और जब वो ऐसा करे तो सरकार यह कहे कि उसने उसके जन्म का पंजीकरण सरकार के साथ किया है इस लिए यह बच्चा अब सरकार का हो गया. लेकिन अगर अज़ीज़ बाशा केस के उस फैसले को सही मान भी लिया जाये तो उसे उच्चतम न्यायालय की उस से बड़ी पीठ ने निरस्त कर दिया है. 1974 के सेंट ज़ेविअर्स मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अल्पसंख्यकों की कोई एक पीढ़ी उसकी दूसरी पीढ़ी के मौलिक अधिकारों की मांग वापस नहीं ले सकती.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
1857 के बाद सर सय्यद अहमद खान को यक़ीन हो गया था कि अँगरेज़ अब भारत से जल्दी जाने वाले नहीं हैं और सरकार में शामिल होने का रास्ता केवल शिक्षा के ज़रिए है. इसलिए सर सय्यद और उनके साथियों ने ‘सोसाइटी फ़ॉर द डिफ्युज़न ऑफ़ वेस्टर्न लर्निंग एमंग मुस्लिम्स’ का गठन किया. इस के बाद उन्होंने मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन पर लोगों से लेख लिखवाए. 32 लोगों ने लेख भेजे और कई ने यह लिखा कि मुसलमान सरकारी शिक्षा और सरकारी संस्थानों का उचित उपयोग नहीं कर रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि मुसलमानों को यह यक़ीन है कि अगर वो उन सरकारी इदारों में जायेंगे जहाँ धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती है तो धर्म से उनका लगाव कम हो जाएगा. इस लिए एक ऐसे इदारे की ज़रुरत है जहाँ साथ-साथ धार्मिक शिक्षा भी दी जाए. लेकिन इस तरह की शिक्षा मुसलमानों को केवल अपने ही इदारे में दी जा सकती है. इसलिए उन्होंने ज़िला कलेक्टर से यूनिवर्सिटी बनाने की अनुमति मांगी.
उन्होंने मुसलमानों से कहा कि वे धीरे-धीरे इस ओर आगे बढ़ें. पहले एक स्कूल बनायें, फिर एक कॉलेज और उसके बाद एक यूनिवर्सिटी. इसलिए पहले एक स्कूल बनाया गया जो 1877 में कॉलेज बन गया जिस का नाम मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज था. कॉलेज के उद्घाटन समारोह में वायसराय की उपस्थिति में सर सय्यद ने स्पष्ट कर दिया था कि उनका इरादा एक यूनिवर्सिटी बनाने का है. इस इरादे का इज़हार उस के बाद हर साल वायसराय मौजूदगी में होता था. सरकार ने भी कॉलेज को यूनिवर्सिटी बनाने के मंसूबे की हिमायत की थी.
1898 में सर सय्यद का निधन हो गया. शोक सभा में यह कहा गया कि सर सय्यद के लिए भरपूर श्रद्धांजली यह होगी कि एक यूनिवर्सिटी क़ायम की जाए. इस के लिए सरकारी सहायता आवश्यक थी. सरकार ने मुसलमानों से कहा कि वे इसके लिए तीस लाख रूपये जमा करें. उस समय यह बड़ी पूँजी थी लेकिन किसी प्रकार इसे जमा किया गया और 1920 में ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट’ पास किया गया. इस अधिनियम के साथ 124 लोगों की एक सूची है जो इस के संस्थापक सदस्य (founding members) हैं और ये सभी मुसलमान हैं. अधिनियम में यह भी कहा गया है कि मुसलमान विद्यार्थियों के लिए धार्मिक शिक्षा की बाध्यता होगी और मुस्लिम लड़कियों के लिए पर्दा का माकूल इंतेज़ाम होगा. यूनिवर्सिटी की सर्वोच्च प्रशासनिक कौंसिल जिसका नाम ‘कोर्ट’ होगा, उसके सभी सदस्य मुसलमान होंगे और वही कुलपति (वाइस-चांसलर) को नियुक्त करेंगे. इस तरह यह स्पष्ट है कि वो एक मुस्लिम इदारा था जो 1920 में कॉलेज से यूनिवर्सिटी बना. क्यूंकि धार्मिक शिक्षा की बाध्यता 1920 के क़ानून का हिस्सा थी और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 28(3) ख़िलाफ़ थी, जिसमे यह कहा गया है कि किसी इंसान को जबरन धार्मिक शिक्षा उस शिक्षण संस्थान में नहीं दी जा सकती जो सरकार से अनुदान लेता हो. इसलिए एएमयू एक्ट को 1951 में संशोधित किया गया, धार्मिक शिक्षा को ‘ऐच्छिक’ कर दिया गया. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि धार्मिक शिक्षा को ख़त्म नहीं किया गया. इसका मतलब यह है कि यदि संसद इसे अल्पसंख्यक संस्थान न समझती तो ऐच्छिक धार्मिक शिक्षा पर भी रोक लगा देती.
1965 तक कोई मसला सामने नहीं आया था. 1965 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ‘इंटरनल’ विद्यार्थियों के लिए आरक्षण पचहत्तर (75) प्रतिशत से घटाकर पचास (50) प्रतिशत कर दिया गया. इस फैसले का एएमयू में बहुत विरोध हुआ और हिंसा भी हुई. तत्कालीन कुलपति यावरजंग पर भी हमला हुआ. ऐसी परिस्थितियों में सरकार ने विश्वविद्यालय पर एक अध्यादेश लागू कर दिया. यूनिवर्सिटी कोर्ट और एग्जीक्यूटिव कौंसिल (कार्यकारी मण्डल) को राष्ट्रपति के नुमाइन्दों से भर दिया गया.
कुछ मुसलमान यूनिवर्सिटी से मशविरा किये बिना सर्वोच्च न्यायालय चले गए. अज़ीज़ बाशा उनमें से एक थे. 1968 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, ‘क्यूंकि हिंदुस्तान के मुसलमानों ने नहीं, बल्कि देश की तत्कालीन विधायिका ने एएमयू की स्थापना की है, इसलिए उसको ही इसकी बागडोर का हक़ है’.
इस फैसले के बाद ए.एम.यू. के पूर्वछात्रों और शुभचिंतकों ने ए.एम.यू. के अल्पसंख्यक चरित्र को बहाल करने के लिए एक आन्दोलन चलाया. यह आन्दोलन 1981 तक चला जब सरकार ने उनकी मांगो को स्वीकार कर लिया. 1981 में ए.एम.यू. एक्ट में धारा 5(2)(c) को जोड़ा गया. यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय को अधिकृत करता है कि वह मुसलमानों की संस्कृति और शिक्षा के विकास और प्रगति के लिए काम करे. ए.एम.यू. कोर्ट के अधिकारों को भी बहाल कर दिया गया और वह एक बार फिर विश्वविद्यालय की सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई हो गया. 1981 के बाद यह बिलकुल स्पष्ट हो गया कि ए.एम.यू. एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है.
इस के बाद यह कहना कि ए.एम.यू. अल्पसंख्यक इदारा नहीं है, अनुच्छेद 30 के दायरे को सीमित करना है. 2002 में सर्वोच्च न्यायालय की ग्यारह सदस्यीय पीठ ने टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन केस में साफ़ कहा था कि “अपनी पसंद का शैक्षिक संस्थान” जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 में मौजूद है, उसमे ‘यूनिवर्सिटी’ भी शामिल है. यहाँ तक कि अज़ीज़ बाशा केस में भी सर्वोच्च न्यायालय ने मान लिया था कि इस जुमले के मतलब में यूनिवर्सिटी शामिल है. इस लिए एक केंद्रीय विश्विद्यालय भी एक अल्पसंख्यक संस्थान हो सकता है यदि उसको मान्यता देने वाला क़ानून संसद ने पारित किया हो. तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जनवरी 2016 में कहा था कि अलीगढ़ और जामिआ विश्वविद्यालय चूँकि संसद ने स्थापित किये थे, इसलिए ये अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हैं. यह कहते समय उनके दिमाग़ में कदाचित टी.एम.आई. पाई केस का फ़ैसला या उस तरह के दूसरे फ़ैसले नहीं थे.
इसके अतिरिक्त किसी किसी इदारे के अल्पसंख्यक चरित्र को परखने का तरीक़ा केवल क़ानून को देखना नहीं होता है बल्कि इस सिलसिले में उस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी देखना आवश्यक है. यह बिंदु माननीय सर्वोच्च न्यायालय के 1993 के सेंट स्टीफेंस मामले में स्पष्ट कर दिया गया है. न्यायालय ने सेंट स्टीफेंस को अल्पसंख्यक इदारा माना था क्यूंकि उस ने अपना ईसाई किरदार बरक़रार रखा था जो उसके नाम, निशान, गिरजा, और वहां दी जाने वाली शिक्षा से उजागर होता है. यदि यही तरीक़ा यह निर्धारित करने का है कि कोई इदारा अल्पसंख्यक है या नहीं, तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक अप्ल्संख्यक संस्थान है. सर्वोच्च न्यायालय भी 1981 में ए.एम.यू. की जामा मस्जिद की महत्ता को स्वीकारते हुए ए.एम.यू के अल्पसंख्यक चरित्र को मान चुका है.
ए.एम.यू. की आरक्षण नीति:
धीरे-धीरे ए.एम.यू. प्रशासन को अहसास हुआ कि ए.एम.यू. में अब भारत के हर कोने से शिक्षार्थी नहीं आ रहे हैं और अब केवल उत्तर प्रदेश और बिहार के शिक्षार्थी यहाँ आ रहे हैं. ए.एम.यू. में आरक्षण का लाभ अब केवल विश्विद्यालय कर्मचारियों के बच्चों और कुछ ए.एम.यू. स्कूलों के बच्चों को ही मिल रहा था. इस मसले का हल निकालने के लिए समीतियाँ बनाई गयीं. यह राय बनी कि पूरे हिंदुस्तान से बुद्धिमान मुस्लिम शिक्षार्थियों को ए.एम.यू. में लाने के लिए उचित होगा कि यहाँ ‘इंटरनल’ शिक्षार्थियों की जगह मुस्लिम शिक्षार्थियों के लिए आरक्षण हो. कुछ लोग इससे सहमत नहीं थे. 2005 में जब यह आरक्षण नीति लागू की गयी तो यह देश की इकलौती आरक्षण नीति थी जिस का उद्देश्य अधिक विवेकपूर्ण और बुद्धिमान विद्यार्थियों की तलाश करना था. देश की बाक़ी सभी आरक्षण नीतियां कमज़ोर विद्यार्थियों को शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए होती हैं.
नयी आरक्षण नीति, जिसमे पचास प्रतिशत सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित थीं, के लागू होने के बाद ए.एम.यू के कुछ ग़ैर-मुस्लिम इंटरनल छात्र इलाहाबाद उच्च न्यायालय चले गए. कोर्ट ने कहा कि धर्म के आधार पर आरक्षण करना ग़लत है जबकि मानव संसाधन मंत्रालय ने एक नोटिस जारी करके ए.एम.यू. को यह अनुमति दी थी कि वह पचास प्रतिशत सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित कर सकते हैं. इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय 1993 में सेंट स्टीफेंस केस में पहले ही व्याख्या कर चुका है. न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया था कि किसी संस्थान में उस समूह/वर्ग के लिए पचास प्रतिशत सीटें आरक्षित की जा सकती हैं जिस ने उसे क़ायम किया हो.
अधिकतर लोग यह समझते हैं कि धर्म के आधार पर आरक्षण ग़लत है और इसलिए ए.एम.यू. ने ऐसा करके भारत के संविधान का उल्लंघन किया है. लेकिन यह रोक राज्य के संस्थानों पर लगे गयी है. मिसाल के तौर पर इस तरह का आरक्षण दिल्ली विश्विद्यालय में नहीं हो सकता है. अल्पसंख्यक संस्थान या तो धार्मिक होते है या फिर भाषाई. अधिकतर अल्पसंख्यक संस्थान भाषाई अल्पसंख्यकों के हैं. भारत में सौ से ज़्यादा सिन्धी अल्पसंख्यक इदारे हैं. भाषाई अल्पसंख्यकों को राज्य स्तर पर परिभाषित किया जाता है. इसीलिए यदि मराठी समूह उत्तर प्रदेश में कोई इदारा क़ायम करता है तो वह अल्पसंख्यक इदारा होगा और वहां मराठी लोगों के लिए सीटें आरक्षित की जा सकती हैं. इस तरह के आरक्षण का प्रावधान भारतीय संविधान ने भारत की विविधता को बरक़रार रखने के लिए किया है. अल्पसंख्यकों को अधिकार देना भारत ने धर्मनिर्पेक्षता को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी हैं. बहुसंख्यको को भी कुछ अधिकार दिए गए हैं और उस से भारत की धर्मनिर्पेक्षता कमज़ोर नहीं पड़ती. प्रतिवर्ष 45.5 लाख रूपये हिन्दू मंदिरों की बहाली के लिए ‘कंसोलिडेटेड फण्ड ऑफ़ इण्डिया’ से दिए जाते हैं. इस से भारत का सेकुलरिज्म खण्डित नहीं होता.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का मुक़दमा माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष है और आने वाले समय में इसका फ़ैसला हो जाएगा. लेकिन इस मुक़दमे ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों के सम्बन्ध से अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं और एक जन-विमर्श शुरू कर दिया है. अब यह देखना है कि न्यायमूर्ति खन्ना के शब्द जो उन्होंने St. Xaviers College vs State of Gujarat में कहे थे, कहाँ तक सच साबित होते हैं. उन्होंने कहा था,
“जब तक भारत का संविधान अपने वास्तविक रूप में जीवित है, इन अधिकारों के साथ किसी छेड़-छाड़ के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. ऐसा करने का कोई भी प्रयास न केवल [संविधान में] विश्वास के ख़िलाफ़ होगा बल्कि वो संविधान का उल्लंघन होगा और उसे अदालतें रद्द कर देंगी”.