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इस्लाम में ब्याजखोरी का तीव्र निषेध | विनोबा भावे

Photo-Horvat

इस्लाम ने ब्याजखोरी का भी तीव्र निषध किया है । सिर्फ़ चोरी न करना इतना ही नहीं, आपकी आजीविका भी शुद्ध होनी चाहिए । गलत रास्ते से की गई कमाई को शैतान की कमाई कहा गया है। इसीलिए ब्याज लेने की भी मनाही की गई है। कहा गया है कि सूद पर धन मत दो , दान में दो।

मोहम्मद साहब को दर्शन हुआ कि ब्याज लेना आत्मा के विरुद्ध काम है। कुरान में यह वाक्य पाँच-सात बार आया है – “आप अपनी दौलत बढ़ाने के लिए ब्याज क्यों लेते हैं ? संपत्ति ब्याज से नहीं दान से बढ़ती है ।” बारंबार लिखा है कि ब्याज लेना पाप है , हराम है । इस्लाम ने इसके ऊपर ऐसा प्रहार किया है, जैसा हम व्यभिचार या ख़ून की बाबत करते हैं । परंतु हम तो ब्याज को जायज आर्थिक व्यवहार मानते हैं ! वास्तव में देखिए तो ब्याजखोरी, रिश्वतखोरी वगैरह पाप है । ब्याज लेने का अर्थ है , लोगों की कठिनाई का फायदा उठाते हुए पैसे कमाना। इसकी गिनती हम लोग क़तई पाप में नहीं करते ।

वास्तव में देखा जाए तो अपने पास आए पैसे को हमें तुरंत दूसरे की तरफ़ धकेल देना चाहिए । फ़ुटबॉल के खेल में अपने पास आई गेंद हम अपने ही पास रक्खे रहेंगे, तो खेल चलेगा कैसे ? गेंद को खुद के पास से दूसरे को फिर तीसरे को भेजते रहना पड़ता है, उसी से खेल चलता है । पैसा और ज्ञान , इन्हें दूसरे को देते रहेंगे तब ही उनमें वृद्धि होगी ।

मेरा मानना है कि ब्याज पर जितना प्रहार इस्लाम ने किया है किसी ने नहीं किया है । ब्याज पर इस्लाम ने यह जो आत्यंतिक निषेध किया है , उसको समाज को कभी न कभी स्वीकार करना ही पड़ेगा । वह दिन जल्दी आना चाहिए , हमें उस दिन को जल्दी लाना चाहिए । एक बार ब्याज का निषेध हो गया , तो संग्रह की मात्रा बहुत घट जाएगी । इस्लाम ने ब्याज न लेने का यह जो आदेश दिया है , उसका यदि अमल किया जाए तो पूँजीवाद का ख़ातमा ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाएगा। जिसे हम सच्चा अर्थशास्त्र कहते हैं उसके बहुत निकट का यह विचार है । मुझे लगता है कि साम्यवाद की जड़ का बीज मोहम्मद पैगम्बर के उपदेश में है। वे एक ऐसे महापुरुष हो गये जिन्होंने ब्याज का निषेध किया तथा समता का प्रचार किया । इस उसूल को उन्होंने न सिर्फ़ जोर देकर प्रतिपादित किया बल्कि उसकी बुनियाद पर संपूर्ण इस्लाम की रचना उन्होंने इस प्रकार की , जैसी और किसी ने नहीं की ।

वैसे तो ब्याज लेने की बात पर सभी धर्मों ने प्रहार किया है । हिंदु धर्म ने ब्याज को “कुसीद” नाम दिया है, यानि खराब हालत बनाने वाला, मनुष्य की अवनति करने वाला । उसके नाम मात्र में पाप भरा है । ब्याज न लेना यह चित्तशुद्धि का काम है, पापमोचन है। ब्याज लेना छोड़ना ही चाहिए । वैसे, ब्याज के विरुद्ध तो सभी धर्मों ने कहा है परन्तु इस्लाम जितनी स्पष्टता और प्रखरता से अन्य किसी ने भी नहीं कहा है।

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गुजराती पत्रिका “भूमिपुत्र” में विनोबा भावे के इस्लाम की बाबत प्रकाशित विचार.

आचार्य विनोबा भावे के ये लेख उनकी पुण्यतिथि (15 नवम्बर )के मौक़े पर पाठकों (विशेषकर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के विद्यार्थियों ) के लिए पुन:प्रकाशित किये  जा रहे हैं .

विशेष आभार: श्री अफ़लातून अफ़लू

श्री अफ़लातून अफ़लू समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय संगठन सचिव हैं. आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU), वाराणसी से उच्च-शिक्षा प्राप्त की. आचार्य विनोबा भावे के ये अनमोल लेख श्री अफ़लातून के ब्लॉग “काशी विश्विद्यालय” से लिए गये हैं.

इस लेख की मूल प्रति “काशी विश्विद्यालय” ब्लॉग पर पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें.

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आचार्य विनोबा भावे के बारे में अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें और हिन्दी में यहाँ पढ़ें. (साभार: विकिपीडिया मुक्त ज्ञान कोष )

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