[कविता] पैरों तले जन्नत | उज़मा सरवत

जब तुम देर रात तक

रसोईघर में

सारा काम समेटती रहती थीं

और पिता की थपकियाँ

मुझे सुलाने की

नाकाम कोशिशें करती थीं

तब मेरी आँखों में नींद

नदारद नहीं होती थी माँ

लेकिन अपने पास तुम्हारे होने के

एहसास के बग़ैर

कैसे सो जाती मैं?

तुम्हारे उन गरम हाथों के

अपने माथे पर

स्पर्श के बग़ैर

कैसे सो जाती मैं?

बस तुम्हारे रसोईघर से कमरे में

आ जाने भर की देरी थी माँ।

तुम्हें कभी बताया तो नहीं मैंने

लेकिन आज सोचती हूँ

उन नींद भरी आँखों में

इंतज़ार की आस लिए जो

बचपन की तमाम रातें गुज़ारी मैंने

क्या वो मुझे तुम्हारी ज़िन्दगी की थकन,

कमज़ोर हो गयी आँखें,

जोड़ों का दर्द,

दिन-रात खटते रहने पर भी

कभी न खतम होने वाले काम को भी

बेहद सलीके से

निपटा देने के हुनर को

समझ पाने की सलाहियत दे पायेंगी?

तुम्हारे ब्याह के बाद के जीवन के

भीतर तक भेद देने वाले

अध्यायों  को पढ़कर भी

तुम्हारी तरह मुस्करा कर

सब दर गुज़र कर देने की

हिम्मत आ पायेगी मुझमें?

किस क़दर अँधेरे को ओढ़कर

ज़िम्मेदारियों का ताज पहन

अपने हिस्से से खुशियाँ बीनकर

कहीं और रख आयीं तुम।

अब एक ही सवाल रह गया है-

इस मायूसी और

दर्द में गुथी हुई ज़िन्दगी में

पैरों तले जन्नत लिए

कैसे फिरती हो माँ,

बताओ न।


उज़्मा सरवत ‘बीनिश’ अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में मनोविज्ञान में स्नातक कर रही हैं. वह विश्विद्यालय के “यूनिवर्सिटी डिबेटिंग एंड लिटरेरी क्लब” की सदस्य हैं.

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