रूस की स्त्रियाँ | सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

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रूस ने नारी जीवन में एक क्रान्ति की लहर उत्पन्न की है। बोल्शेविक क्रान्ति के पहले वहाँ स्त्रियों के साथ अत्यन्त अमानुषिकता का व्यवहार किया जाता था, उनकी दशा बड़ी ही शोचनीय थी। रूस के यार्कुटस्क प्रान्त में तो स्त्रियों के बेचने तक का व्यवसाय होता था। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिए हम यहाँ एक प्रकाशित लेख का कुछ अंश उद्धृत करते हैं –

“रूस में यार्कुटस्क एक प्रान्त का नाम है। यह प्रान्त क्षेत्रफल के हिसाब से बहुत बड़ा हैं इसी प्रान्त में पहले स्त्रियों के बेचने का व्यवसाय होता था। स्त्रियों का मूल्य, उनकी अवस्था और सुन्दरता के अनुसार, तीस-बत्तीस पौण्ड आटा से लेकर तीस-चालीस पौण्ड मक्खन तक होता था। सुन्दर से सुन्दर स्त्रियाँ रूस के इस प्रान्त में थोड़े से दामों अथवा अनाज के बदले में मोल ले ली जाती थीं। इन खरीदी हुई स्त्रियों का उनके मालिकों के ऊपर कोई अधिकार न होता था। खरीदार मालिक उन्हें स्त्री बनाता, उनसे मजदूरी करवाता और भोजन-वस्त्र देकर उनका पालन-पोषण करता था। इसके पश्चात वह खरीदार, कुछ दिनों के पीछे, जब चाहता था, उस खरीदी हुई स्त्री को बेच सकता था। उस समय, जब लड़कियाँ अपने माँ-बाप के यहाँ रहती थीं, उनको अपने जीवन का कुछ ज्ञान न होता था। वे नहीं जानती थीं कि कब, कहाँ और किसके हाथों बेच दी जायेंगी, और इस प्रकार उनको अपने माता-पिता का घर छोड़कर चला जाना पड़ेगा। लड़कियों के माता-पिता उनके सयानी होने की प्रतीक्षा करते और सयानी हो जाने पर यथासम्भव अधिक मूल्य में बेचने का प्रयत्न करते थे। इन अभागिनी लड़कियों को अपने माता-पिता के घरों में भी कुछ सुख-सन्तोष न मिलता था।”

रूस की वैवाहिक प्रथा और भी अधिक चिन्तनीय थी। लड़कियाँ अपने पिता के हाथों में कठपुतलियों की भाँति थी। उन्हें विवाह के सम्बन्ध में कोई भी अधिकार प्राप्त न था। पिता मनमाना धन लेकर जिनके साथ चाहे उनका विवाह कर देता, वे चूँ तक न कर सकती थीं। अपने वैवाहिक जीवन में उन्हें ‘पति की मोल ली हुई दासी’ की तरह रहना पड़ता था। खाना पकाना, पानी भरना, वस्त्र धोना, कपड़े सीना, बच्चों का पालन-पोषण करना और खेतों में काम करना-यही उनका रोज का कार्यक्रम था। सब प्रकार पति को प्रसन्न रखना उनका एकमात्र लक्ष्य था। तनिक से अपराध पर पुरुष उन्हें कड़े से कड़ा दण्ड दे सकते थे। वे कहीं भाग न सकती थीं। और, यदि भागतीं, तो पुलिस उन्हें पकड़कर पुनः पतियों के हाथों सुपुर्द कर देती थी। पुरुषों को विवाह-सम्बन्ध-विच्छेद का पूर्ण अधिकार था। वे उन्हें तनिक सी बात पर नाराज होकर त्याग सकते थे। विरोध करना तो दूर की बात, वे निगाह भी ऊपर न कर सकती थी। पुरुषों की सत्ता के सम्मुख उन्हें अपनी समस्त इच्छाओं की बलि दे देनी पड़ती थी।

इस नारकीय दाम्पत्य जीवन की दुरवस्थाओं के कारण समाज में सर्वत्र व्यभिचार बढ़ गया था-वे समाज की आँखों में धूल झोंक अपने सतीत्व को नष्ट करती थीं। व्यभिचार द्वारा उत्पन्न बच्चे नदी-नालों, तालाबों आदि जगहों पर फेंक दिये जाते थे। वेश्यालयों के अतिरिक्त कुछ ऐसे स्थान होते थे, जहाँ जवान, खूबसूरत बालिकाएँ घृणित उपायों द्वारा सतीत्व से भ्रष्ट की जाती थीं। ऐसे गुप्त संकेत स्थल ‘लिटिल कैंडल क्लब’ के नाम से प्रख्यात थे। जब किसी स्त्री का दुष्चरित्र प्रकट हो जाता, तो वह अपने घर से निकाल दी जाती थी, परन्तु व्यभिचारी, कामान्ध युवकों को कोई भी दण्ड न मिलता था।

रूस के इस कुत्सित, अत्याचारपूर्ण जीवन का अन्त आखिर में होकर रहा। यहाँ की भीषण बोल्शेविक राज्य क्रान्ति ने दीन-दलितों का ही उत्थान नहीं किया, वरन वहाँ की स्त्रियों में भी अभूतपूर्व जागृति उत्पन्न कर दी। आज रूस की स्त्रियों को संसार में अपना मस्तक ऊँचा करने का श्रेय प्राप्त है। उनकी नस-नस में विद्युत की सी शक्ति प्रवाहित हो चुकी है। क्रान्ति के बाद सोवियत सरकार ने स्त्री-पुरुष के समान अधिकार घोषित किये। स्त्रियों में शिक्षा प्रचार के लिए भरसक यत्न किया गया। उनमें जागृति उत्पन्न करने के लिए रूस में विभिन्न प्रकार की संस्थाएँ बनायी गयीं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं का जन्म हुआ। उनकी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक उन्नति के लिए व्यायामशालाओं, क्लबों तथा पुस्तकालयों का आयोजन किया गया। देहातों में भी इन सब बातों का समुचित प्रबन्ध किया गया। कुछ ही दिनों में वहाँ की स्त्रियों का जीवन नवीन प्रस्फुटित कलियों की भाँति विकसित हो उठा। शिक्षा प्राप्त स्त्रियाँ स्कूलों, दफ्तरों, कारखानों तथा अन्य स्थानों में पुरुषों के साथ-साथ समान रूप से, उत्साहित होकर काम करने लगीं। वे निर्भय तथा स्वावलम्बी होकर रहना पसन्द करने लगीं। प्रत्येक स्त्री पत्र-पत्रिकाओं का पढ़ना, भिन्न-भिन्न कार्यवाहियों में भाग लेना तथा वाचनालयों में जाना अपना अनिवार्य कार्य समझने लगी। देहात की स्त्रियों की उन्नति के लिए भी पूर्ण प्रयन्त किया गया। उनको सब प्रकार की सुविधाएँ दी गयीं। खेती की उन्नति के लिए कृषि संस्थाएँ खोली गयीं, और नागरिक सभाओं तथा शासन सम्बन्धी पंचायतों से उन्हें पूरा सहयोग प्राप्त हुआ। फलतः देहातों में भी स्त्री जीवन तथा स्त्री व्यवसायों की व्यवस्था में नवीनता प्राप्त हुई। कारखानों में काम करने वाली स्त्रियों और लड़कियों की उन्नति का भी काफी प्रयत्न किया गया। उनके लिए ट्रेड्स स्कूल खोले गये जहाँ उन्हें कारखानों के काम में विशेष योग्यता प्राप्त करने का समुचित प्रबन्ध किया गया। आजकल तो वे कारखानों में काम करने के समय में से आधा समय निकालकर इन स्कूलों में काम सीखती हैं। उन्हें छात्रवृत्ति भी मिलती है। इन सुविधाओं के कारण वे स्त्रियाँ, जो मज़दूरी करके कठिनता से ज़िन्दगी बिताती थीं, अधिक उपकृत हुईं।

सोवियत सरकार ने स्त्रियों के घरेलू जीवन में भी एक क्रान्ति पैदा की है। स्त्रियों का बहुत-सा अमूल्य समय बाल-बच्चों के पालन-पोषण में ही निकल जाता था, और वे अपने सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को सुदृढ़ तथा समुन्नत नहीं बना सकती थीं। उनका बहुत-सा समय गार्हस्थिक चिन्ताओं में ही बीत जाता था। देश और समाज के लिए वे कुछ भी न कर सकती थीं। इस महान दोष से देश को मुक्त करने के लिए सोवियत सरकार ने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। महात्मा लेनिन के कथनानुसार घर तथा बाहर, दोनों ही जिम्मेदारी स्त्री-पुरुष पर समान रूप से पड़ी। स्त्रियों ने पुरुषों के समान अपने अधिकार प्राप्त किये और अब रूस के कोने-कोने में साम्यवादी सिद्धान्त का प्रभाव दिखलायी पड़ रहा है। सोवियत सरकार ने देश में ऐसे आश्रम बनाये हैं, जहाँ देश के प्रत्येक बच्चे का पालन-पोषण अत्यन्त ध्यानपूर्वक होता है। हर एक स्त्री-पुरुष अपने बच्चे को, पैदा होते ही, आश्रम में भेज देता है। वहाँ सब बच्चे स्वस्थ, निरोग, शिक्षित तथा योग्य बनाये जाते हैं। माता-पिता स्वच्छन्दतापूर्वक अपना और काम देख सकते हैं। उन्हें अपने बच्चों के लालन-पालन की कोई फिक्र नहीं करनी पड़ती। रूस की नयी सरकार इन बच्चों को देश और समाज का अंग और उनकी स्थायी सम्पत्ति समझती है। यही कारण है, रूस की शक्ति दिन पर दिन बढ़ रही है। अब कोई युवती कौमार्य अवस्था में पुत्रवती हो जाने से तिरस्कृत नहीं की जाती। उसकी वह सन्तान भी शिशुगृह में सावधानी से पाली जाती और बड़ी होने पर उसी की सन्तान कहलाती है। उसे इस भूल के लिए आजीवन कष्ट नहीं झेलना पड़ता।

रूस की वर्तमान सोवियत सरकार ने वेश्यावृत्ति को अत्यन्त गर्हित कर्म करार दिया है। वह उसके विरुद्ध बड़ा प्रबल आन्दोलन कर रही है। समाजप्रेमी स्त्री-पुरुष उसको निर्मूल करने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। रूस में स्वास्थ्य और सदाचार के प्रसार के लिए बड़ी-बड़ी सभाएँ कायम की गई हैं। उन्हीं सभाओं के अन्तर्गत ‘वेश्यावृत्ति विरोधिनी केन्द्रीय समिति’ (The central council to combat prostitution) की स्थापना की गयी है। इसका फल यह हुआ कि अब रूस में वेश्याओं की संख्या दिन-पर-दिन घट रही है, और वेश्यावृत्ति की भावना भी धीरे-धीरे नष्ट हो रही है।

इस प्रकार रूस में शिक्षा, सभ्यता, देशप्रेम और सदाचार का प्रचार दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। सब स्त्री और पुरुष बिना किसी भेदभाव के सामूहिक रूप से सामाजिक तथा राष्ट्रीय नियंत्रण में दत्तचित्त हो रहे हैं। वे लोग इस मूल-मंत्र को समझ गये हैं कि-“पुरुष और स्त्री का जीवन पूर्ण स्वतंत्रता और पूर्ण सहकारिता के भावों से ओत-प्रोत है।” तात्पर्य यह कि “स्‍त्री-पुरुष फूल और पौधे की तरह परस्पर सम्बद्ध हैं। वे परस्पर विचारों की स्वाधीनता की निर्मल वायु में प्रेम और समुननति की वर्षा और धूप में ही, पनप सकते हैं।” अतः हमारी भारतीय ललनाओं का यह कर्तव्य है कि वे भी रूस की स्त्रियों की भाँति उन्नतिशील बनें और जहरीले अन्ध-परम्परा के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर वास्तविकता और शिक्षा की ओर अप्रतिहत वेग से अग्रसर हों, इसी में समाज तथा देश का कल्याण है।

[‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, जुलाई 1935 (सम्पादकीय)]

साभार: मज़दूर बिगुल

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