Environment – Awaam India http://awaam.net We, the People of India Mon, 08 Apr 2019 20:17:06 +0000 en-US hourly 1 #?v=4.9.12 https://i2.wp.com/awaam.net/wp-content/uploads/2017/05/cropped-icon.png?fit=32%2C32 Environment – Awaam India http://awaam.net 32 32 106174354 पूँजीवाद को तबाह नहीं किया तो पूँजीवाद पृथ्वी को तबाह कर देगा ! /capitalism-will-destroy-earth/ /capitalism-will-destroy-earth/#respond Sun, 20 May 2018 12:06:45 +0000 /?p=2890 कविता कृष्णपल्लवी ‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की चिंता प्रकट करते हुए कार्यक्रम हुए। 1970

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कविता कृष्णपल्लवी

‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की चिंता प्रकट करते हुए कार्यक्रम हुए। 1970 में इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई और यह बात अनायास नहीं लगती कि इसके लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया जो लेनिन का जन्मदिन है।

लेनिन के बहाने क्रांति पर बातें हों, इससे बेहतर तो यही होगा कि पर्यावरण के विनाश पर अकर्मक चिंतायें प्रकट की जाएँ और लोगों को ही कोसा जाये कि अगर वे अपनी आदतें नहीं बदलेंगे, और पर्यावरण की चिंता नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर क़यामत आ जायेगी। यानी सामाजिक बदलाव के बारे में नहीं, महाविनाश के दिन के बारे में सोचो। हॉलीवुड वाले इस महाविनाश की थीम पर सालाना कई फ़िल्में बनाते हैं।

पृथ्वी दिवस पर विभिन्न बुर्जुआ सरकारें, साम्राज्यवादी देशों की जुबां बोलने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ और देशी-विदेशी पूँजीपतियों की फंडिंग से चलने वाले एन.जी.ओ. सबसे अधिक प्रोग्राम करते हैं। इनमें लोगों को पेड़ लगाने, फिजूलखर्ची की उपभोक्ता संस्कृति से बचने, नदियों को साफ़ करने, तालाबों और जंगलों को बचाने, प्लास्टिक का इस्तेमाल न करने आदि-आदि की राय दी जाती है।

ऐसा लगता है मानो जनता और जनता की बुरी आदतें, या मशीनीकरण, या आधुनिकता ही पर्यावरण-विनाश के लिए दोषी हैं। इस तरह, असली अपराधी को परदे के पीछे छुपा दिया जाता है और सारी ज़िम्मेदारी लोगों पर डाल दी जाती है।

पृथ्वी के पर्यावरण और पारिस्थितिक-तंत्र के विनाश के लिए लोग और उनकी बुरी आदतें नहीं, बल्कि मुनाफ़े की अन्धी हवस और गलाकाटू होड़ ज़िम्मेदार है। ये पूँजीपति हैं जो कारखानों की गन्दगी से नदियों, समन्दर, आकाश और हवा को दूषित करते हैं और अवशिष्ट-शोधन की तकनीक मौजूद होते हुए भी सारी गन्दगी वातावरण में प्रवाहित करके अपना पैसा बचाते हैं।

ये पूँजीपति हैं जो मुनाफ़े के लिए जेनेटिक बीजों, कीटनाशकों और रसायनों से खेती की पूरी ज़मीन को पाट देते हैं। ये पूँजीपति हैं जो स्वच्छ और पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों की मौजूदगी के बावजूद, और तकनीक की मौजूदगी के बावजूद जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल करके ध्रुवों की आइस कैप्स के पिघलने, ग्लेशियरों के सिकुड़ने, ओज़ोन परत में छेद कर देने और ग्लोबल वार्मिग जैसी ख़तरनाक पर्यावरणीय समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं।

ये पूँजीपति हैं जो वन-संपदा के लिए और खनिजों के लिए अंधाधुंध जंगलों का विनाश कर रहे हैं। ये पूँजीपति हैं जो बाज़ारों के बँटवारे और मुनाफ़े की होड़ के लिए विनाशकारी युद्ध लड़ते हैं और सर्वाधिक प्रदूषण पैदा करने वाले दुनिया के विशालतम उद्योग – हथियारों के उद्योग को खड़ा करते हैं।

अराजकता पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली का अनिवार्य अन्तर्निहित तत्व होती है। मुनाफ़े के लिए गलाकाटू होड़ करते पूँजीपति सिर्फ़ अपने मुनाफ़े के बारे में सोचते हैं, वे मनुष्यता के या स्वयं अपने भी दूरगामी भविष्य के बारे में नहीं सोच सकते। पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी भविष्य के बारे में सोचने का काम पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी, यानी सरकार का होता है। किन्तु वह भी पूँजीपतियों के दूरगामी हित के बारे में इतनी दूर तक नहीं सोच सकती कि पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने के लिए कारगर कदम उठा सके।

पूँजीवादी व्यवस्था की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उसमें धुम्रपान-निषेध और मद्य-निषेध का प्रचार भी होता है और बीडी-सिगरेट-शराब का भी प्रचार होता है और बिक्री होती है। पूँजीवादी व्यवस्था में हर समस्या का समाधान अपने-आप में स्वयं समस्या बन जाता है। कीटनाशकों-रसायनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए ‘ऑर्गनिक फ़ूड’ का प्रचार होता है और देखते ही देखते उसकी एक विराट इन्डस्ट्री खड़ी हो जाती है, मुनाफ़ा कूटने का एक नया क्षेत्र विकसित हो जाता है।

‘क्लीन एनर्जी’ का शोर मचता है और सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा उत्पादन के सेक्टर में दैत्याकार देशी-विदेशी इजारेदार घराने पैदा हो जाते हैं। पुरानी समस्या भी मौजूद रहती है और उसे दूर करने के नाम पर मुनाफ़ा कूटने का नया सेक्टर और नयी समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के उपकरण बनाने वाली कम्पनियाँ भी खनिजों के लिए प्रकृति का अंधाधुंध विनाश करती हैं और जमकर हवा-पानी को प्रदूषित करती हैं।

कुछ ‘सादा जीवन उच्च विचार’ टाइप लोग “प्रकृति की ओर वापसी” का, मितव्ययी होने का नारा देकर समस्या का हल ढूँढ लेना चाहते हैं। वे आधुनिकता, टेक्नोलॉजी और उपभोक्ता-संस्कृति से छुटकारा पाने का सुझाव देते हैं। पहली बात यह कि दोष आधुनिकता या तकनोलोजी का नहीं है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल यदि मुनाफ़े को केंद्र में न रखकर सामाजिक हित को केंद्र में रखकर होगा तो वह लगातार मानव जीवन को उन्नत बनाने का काम करती रहेगी।

दूसरी बात, जब तक समाज का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा तब तक हम एक-एक नागरिक को उपभोक्ता संस्कृति से दूर करने का आध्यात्मिक टाइप चाहे जितना आन्दोलन चला लें, इससे कुछ नहीं होगा। हमारी चेतना और संस्कृति सामाजिक परिवेश से निर्धारित होती है और लोभ-लाभ के सामाजिक ढाँचे को बदले बिना उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव को समाप्त नहीं किया जा सकता।

तीसरी बात, आम लोगों की “बुरी आदतों” से पर्यावरण को 1-2 प्रतिशत ही नुकसान होता है (और वे बुरी आदतें भी अपना सामान बेंचकर मुनाफ़ा कमाने के लिए पूँजीपति ही पैदा करते हैं)! पर्यावरण को 98-99 प्रतिशत नुकसान पूँजीवादी उत्पादन, खनिजों के अनियंत्रित दोहन, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल, मुनाफ़े की होड़ से जन्मे विनाशकारी युद्धों और युद्ध-सामग्री के उत्पादन के विशालतम वैश्विक उद्योगों आदि से होता है।

पूँजीवाद जब पर्यावरण-विनाश को रोकने के लिए और इसके प्रभाव से लोगों को बचाने के लिए कुछ करता है तो उसे भी मुनाफ़ा कूटने का साधन बना देता है। देखते-देखते हवा और पानी शुद्ध करने वाली मशीनों से बाज़ार पट जाता है, नदियों को साफ़ करने वाली बड़ी-बड़ी मशीनों का उत्पादन होने लगता है, नए जंगल लगाने के नाम पर ठेकेदार और सरकारी अमले-चाकर चांदी काटने लगते हैं।

तब कुछ नासमझ, भोले-भले लोगों की मूर्खता पूँजीवादी व्यवस्था के काम आती है। ये संत-महात्मा टाइप लोग आम जनता को मोबिलाइज करके नदियों-तालाबों की सफाई में लग जाते हैं। वे जितना साफ़ करते हैं, पूँजीवादी उत्पादन उससे कई गुना अधिक गंदा करता है। इस तरह जनता से मुफ्त वे पूँजीवाद की गंद साफ़ कराते हैं और जनता को या प्रकृति को इसका कोई लाभ भी नहीं मिलता।

ये नेकनीयत कूपमंडूक इस बात को नहीं समझ पाते कि पूरी व्यवस्था ही यदि प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार है तो इस व्यवस्था के भीतर जनशक्ति को जागृत और लामबन्द करके थोडा प्रदूषण अगर वे दूर भी कर लेंगे तो इससे कुछ नहीं होगा, उलटे उनका यह सद्प्रयास शासक वर्ग और इस व्यवस्था के लिए एक स्पीड-ब्रेकर का, एक सेफ्टी-वाल्व का और एक विभ्रम पैदा करने वाले परदे का ही काम करेगा।

इतनी शक्ति यदि वे यह प्रचार करने में लगाते कि पर्यावरण-विनाश का मुख्या कारण मुनाफ़े पर टिकी उत्पादन की व्यवस्था है, अतः यदि धरती को बचाना है तो पूँजीवाद को एक गहरी क़ब्र में दफन करना होगा; तो उनका श्रम कुछ सार्थक भी होता।

पर्यावरण विनाश पर पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के कुकर्म कटघरे में न आयें, इसके लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों की एजेंंसियों और ट्रस्टों से वित्त-पोषित एन.जी.ओ. पृथ्वी दिवस खूब ज़ोर-शोर से मनाते हैं। वे पर्यावरण विनाश के लिए जंगलों के कटने, प्रकृति के अनियंत्रित दोहन, रसायनों पर निर्भर खेती, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल और फिजूलखर्च उपभोक्ता-संस्कृति आदि की खूब बातें करते हैं, पर यह कत्तई नहीं बताते कि इसके लिए पूँजीपतियों की मुनाफ़ाखोरी और पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है।

पूँजीपतियों की “दानशीलता” के भरोसे चलने वाले कुलीन भिखमंगों की ये संस्थाएँ भला ऐसा कर भी कैसे सकती हैं? “पर्यावरण-सुधारवाद” का खोमचा सजाये ये लोग दरअसल पूँजीवादी विभ्रम को ही माल के रूप में बेचते हैं। ये पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा-पंक्ति, धोखे की टट्टी और स्पीड-ब्रेकर का काम करते हैं। यह एन.जी.ओ. ब्रांड प्रगतिशीलता बिना मेहनताना दिये पूँजीवाद की गन्दगी जनता से साफ करवाती है।

पर्यावरण का सवाल सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। पूँजीवादी मुनाफ़े की अंधी हवस और होड़ उत्पादक मनुष्य के साथ ही प्रकृति को भी निचोड़ रही है। धरती के पर्यावरण को बचाना है तो पूँजीवाद को दफनाना होगा। पूँजीवादी समाज में जनता को यदि व्यवस्था-सजग बनाए बिना “पर्यावरण-सजग” बनाया जाएगा तो होगा यह कि पूँजीवाद द्वारा चारो ओर भर दी गयी गन्दगी को जनता पर्यावरण बचने की चिंता से सराबोर होकर थोड़ा-बहुत साफ़ करती रहेगी, ताकि पूँजीवाद उसे फिर गंदा कर सके। यानि “पर्यावरण-सुधारवाद” से प्रेरित लोग पूँजीवाद को थोडा और ‘ब्रीडिंग स्पेस’ और ‘ब्रीदिंग स्पेस’ मुहैया कराने से अधिक कुछ भी नहीं करते। इसीलिये साम्राज्यवादियों और देशी पूँजीपतियों द्वारा वित्त-पोषित एन.जी.ओ. नेटवर्क पर्यावरण को लेकर ‘पृथ्वी दिवस’ पर इतना चिंतित हो जाता है।

साभार: मज़दूर बिगुल

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Reasons behind so many changes to India’s monsoons (Raghu Murtugudde) /murtugudde04092017/ /murtugudde04092017/#respond Mon, 04 Sep 2017 14:41:26 +0000 /?p=2186 Fewer monsoon depressions in the Bay of Bengal are causing shifts in the duration and intensity of the rainy seasons. What does this mean

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Fewer monsoon depressions in the Bay of Bengal are causing shifts in the duration and intensity of the rainy seasons. What does this mean for South Asia?

For the third year in a row, India’s monsoon season has produced floods in the northwest and the northeast, while southern parts of the country have suffered from a rainfall deficit. Rainfall extremes have increased threefold over the last few years and now extend over all of central India – from Gujarat to Odisha. The floods of 2017 are quite consistent with this pattern; the moisture derives from the northern Arabian Sea and not from depressions in the Bay of Bengal as one would usually expect.

Considering the total rainfall over the entire monsoon season from June to September, an early monsoon tends to bring bountiful rainfall whereas better-than-average rainfall is rarely seen when they are delayed.

The onset of the monsoon has been delayed almost every year since 1976, when there was a regime shift in climate around the world – from a weak to a strong El Niño period. Since this time, monsoons have also been ending sooner – almost a week from the end of September – so the length of the rainy season has been compressed. This is in addition to the approximately 10% decrease in All India Monsoon Rainfall, and an increase in the spatial variability of monsoon rainfall, since the 1950s.

The climate change effect

During the monsoon season, there are usually random “break periods” when there is hardly any rainfall. These periods are associated with systems moving northwards from the equatorial region. All available data and models-blended-with-data (known as reanalysis) indicate that global warming is shortening the length of the “active periods” when it does rain, while lengthening the break periods. They also indicate that climate change is decreasing the extremes in the active periods while increasing them in the break periods.

So, just about everything about the monsoon is changing – rainfall intensity, duration, frequency and spatial distribution.

We cannot be entirely sure if all this is in response to global warming – in which case it could be permanent and accelerate – or if the monsoon system will revert to a more “normal” state. Until we have many more years of data and reanalysis, a complete separation of the global warming impact from natural climate variability such as due to El Niño may not be possible.

The key question right now is whether the shortened length of the rainy season could lead to increased monsoon extremes by trying to squeeze similar amounts of rainfall into a shorter period, or whether global warming is causing shifts in the duration, intensity and frequency of rainfall.

Analysing the monsoon

Analysing the South Asian monsoon has been difficult. A rich vein of long-term data yields great insights but also raises new questions and poses serious challenges to climate models old and new. However, now we do know that rainfall extremes during the monsoon are unrelated to local warming.

We also know that the long-term trends we are witnessing – decreasing mean rainfall, increasing spatial variability of rainfall, and a threefold rise in rainfall extremes – are associated with a weakening monsoon wind circulation and a decrease in the number of monsoon depressions from the Bay of Bengal. Historically, these depressions used to be responsible for about half the rainfall during the entire monsoon.

So, if there are fewer monsoon depressions in the Bay of Bengal, what is driving these rainfall extremes?A new paper I co-authored with Roxy Mathew Koll of the Indian Institute of Tropical Meteorology finds that warming of the land in northwest India and Pakistan creates a pressure force that drives strong near-surface winds from the northern Arabian Sea to central India and brings enough moisture to more than compensate for the weakening monsoon circulation and the decreasing monsoon depressions from the Bay of Bengal. This also explains the threefold increase in rainfall extremes despite the decreasing trend in overall monsoon rainfall.

Other factors at play

Other factors influencing the monsoon – which brings more than 80% of the annual rainfall to South Asia – include the impact of El Niño and its counterpart La Niña. Then there’s the warming and cooling of the Indian and Atlantic oceans – the Indian Ocean Dipole and the Atlantic Niño. All these play a role in the monsoon, but it is not always clear which affects what, and how.

Despite these changes and the decreasing trend, rainfall at the end of most seasons remains within 10% of the long period average. But with the variations across space increasing, that means little to farmers dependent on rain-fed agriculture. Some regions such as northern Karnataka and central Maharashtra have recently had rainfall deficits close to 50%.

Long-term rainfall decline is worrying, especially if it is caused by oceans warming up as a result of climate change. This can alter the land-ocean temperature contrast and reduce the moisture demand over land during the monsoon.

Henry Blanford, director of the India Meteorological Department in the late 19th century, referred to the ephemeral behaviour of the monsoon as its vicissitudes. These have clearly increased now, and made the work of scientists more difficult. But there is a silver lining. We now know that non-local influences are more important; it is easier to track them and improve our forecasting to the point where authorities have sufficient time to act before a flood or a storm.

And since total rainfall has remained within 10% of the long period average, large water reservoirs are unnecessary. The real large-scale plan should be about capturing the rains, either by rainwater harvesting or agroforestry.

The article was originally published at thethirdpole.net

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To the Hunters of Mountains and Valleys | Mujahid Mughal /hunters-mountains-valleys-mujahid-mughal/ /hunters-mountains-valleys-mujahid-mughal/#respond Sun, 28 May 2017 10:29:56 +0000 /?p=961 Every life is sacred. At least every life is sacred to someone. In other words as the life of a hunter who is born

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Every life is sacred. At least every life is sacred to someone. In other words as the life of a hunter who is born with a body which physically is called “human” among hunters, is sacred to the hunts-man society (who enjoy the flesh of an animal, and peel the skin of a cave dweller). Life of a guerrilla (a forest dweller) is also sacred to the forest dwellers which are protected by guerrillas. Guerrillas protect not only their lives and that of their genus but also the territory and life of all the other forest dwellers. It is a well-known fact that hunters have always been selfish and lusty and guerrillas have always been the selfless fighters and protectors. Do guerrillas have a right to property?

The lap of Himalayas has always been an abode for the rich ecological diversity, unless the hunters invaded it. Himalayan has been a breeding ground for the weak-hearted pigeons, beautiful dears, peaceful lions and goats which are made scapegoats, when time demands. It has also been a home to some species of parrots which are trained to utter nuisance, their masters indoctrinate them with. Himalayan cows have been considered both- the goddesses and the “meal” by huntsmen society as the situation demands. There are innumerable species of dogs. There are dogs that only bark and seldom bite. There are dogs which not only bark and sniff but also bite. There are indeed many other species whose allegiance cannot be traced. People call them all chameleons. Some of the fauna are so identical that it becomes hard to differentiate between them. For instance, it has always been difficult to differentiate between wild cats, leopards, lions and tigers for the huntsmen. Still there are many others who even fail to differentiate between monkeys and chimpanzees.

Nonetheless, rich forests have been a welcoming and breeding ground for the forest dwellers which are called “terrorising-animals” by the outsiders. By outsiders I mean the hunters and the intruders. These hunters in the beginning made their lavish lives out of these forests only. The forest dwellers unlike hunters (who never let other species to thrive), let them flourish, even at the cost of intrusion into their dens and nests. The Forest dwellers, (which are called “terrorising-animals”) have always been kind to almost everyone, be it hunters, Angels or Jins. However, hunters took their compassion as their weakness and timidity. Lust thence got the kick, along with conceit. Lust, eventually, spreading like a pitch-dark night on the forests grew more and more.

With time, the hunters also developed the skill and technology required to eliminate the forest dwellers from every corner of the forest. Even after collecting and gathering the riches and booty enough for their generations to come, the huntsmen remained unsatisfied. They subsequently in full swing began to kill the feeble and weak terrorising-animals. These frail-terrorising beasts which actually were the prey for foxes and bears, also received the occasional sympathy of the foxes and bears. For this reason, to fight them all, hunters not only brought home the foreign technology and skill but also the foreign hunters (more skilled and more sophisticated) to kill more and more and accumulate more and more. Lust, as they say, has no end. Sickles, arrows and swords, were replaced by guns, revolvers and pistols and what not.

I was unfortunately born in the huntsmen-society, which praised the huntsman, when they killed the forest dwellers. They also glamorised the tales of their bravery and daring. And when, at times, hunters were killed in retaliation or due to their own mistakes, by the terrorising-beasts, huntsmen-society talked eloquently about the barbarianism of these forest dwellers. Animals were cursed upon.

In the forests of Pir Panjal, in 1990s, such a hunter once was caught and retaliated by a lion. In the incident which has become a tale now, a hunter fought with the lion and was therefore injured for a life time. The story of his heroism and grit (strangely) flew on the surface of every river and echoed in the clefts of every valley. What I, being a child observed, was that the hunter was actually not only terrified but also petrified while narrating the story to us.

But my friends over there mistook him as the bravest man; the valiant man who could save himself with the help of gun shots fired at the Lion with precision. They talked a lot about his skill and dexterity. He could somehow make the lion run out of his den with at the stake of technology and allies. But the truth as it appeared to me was that, he actually was haunted by his experience with the lion and the injuries he sustained. I also surmised that, he must have died out of that injuries and burn only. Yes, it burns. They say that when the forest dwellers attack the hunters, they make it burn.

It is also being narrated in the mountain tales that before him another hunter was caught by the lions who could not survive. He was so much injured that the injuries accompanied all his life and it became difficult for the hunts-man family to lead a life they never imagined.

However, being an inquisitive child, after meeting the hunter, I had many questions in my mind. I asked myself, why is everyone invading the territory of a peaceful lion that never does the same to us (the huntsmen)? Why are we not as peaceful as the lion, if we are as powerful as him? And if the hunters’ society concedes lion as a ruthless and terrorising-beast why don’t they leave the forests? Why don’t the hunters learn a lesson from the earlier tales of hunt? Or is it that, hunters have always cheated more huntsmen society by telling them only false stories about forests? I also thought why the lion has no right to protect his cubs and his den? Why is no one sympathising with the lion? How rational is it to sympathize with the huntsmen?

I also wanted other members of the huntsmen-society to ponder over these questions. But the society of hunters, to my surprise, equipped the hunters with more ammunition to kill the forest dwellers. The results were the same. Eventually the huntsmen-society sympathized with the wounded and killed hunters. Being a part of the hunters’ society, I also prayed for the injured hunters. After all, they too were “life”. But deep inside me, there was a voice that said, “Those hunters, who choose to hunt the lions, should be ready to accept the consequences”. For the huntsmen-society, the voice suggested that “if the hunters die, it should not be disturbing for them. It should not be disturbing, at least for me”. Is it not like sending the soldiers to a war and expecting them not to get killed?

I therefore concluded that “those who sympathize with the hunters must not let them invade the forests (or else they should celebrate whatever comes after a hunt-the corps or the glory)”. That’s the only way to protect ecology & environment. That’s the only way to save the hunters and “terrorising-animals”. That’s the only way to save the very existence.

Photo: www.awf.org

Published on: Jun 6, 2016 @ 18:04 

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